Book Title: Namokar Granth Author(s): Deshbhushan Aacharya Publisher: Gajendra Publication Delhi View full book textPage 9
________________ णमोकार वाला है। विषम विष को दूर करने वाला है । कर्मों को जड़ मूल से नष्ट करने वाला है। अतएव सिद्धि का देने वाला है मुक्तिसुख का जनक है और केवलज्ञान का समुत्पादक है। अतएव इस मंत्र का बार बार जाप करना चाहिए क्योंकि यह कर्म परम्परा का विनाशक है। इस मंत्र की प्राराधना का फल बतलाते हुए प्राचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्ण में कहा है कि लोक में जितने भी योगियों ने आध्यात्मिक लक्ष्मी (मोक्ष लक्ष्मी) को प्राप्त किया है। उन सबों ने श्रुतशानभूत इस महामन्त्र की आराधना से ही प्राप्त किया है । रामस्त जिनवाणी रूप इस मन्त्र की महिमा एवं इसका तत्काल होने वाला अमिट प्रभाव योगी मुनि पुगवों के भी अगोचर है वे इसके वास्तविक प्रभाव का निरूपण करने में असमर्थ हैं। इस मन्त्र का प्रभाव केवली ही जानते हैं। पाप से मलिन प्राणी भी इसी मन्त्र से विशुद्ध होते हैं और इसी के प्रभाव से मनीषोमण संसार के क्लेशों से छूटते हैं। श्रियमात्यन्तिको प्राप्ता योगिनो येत्र केचन | अमुभेव महामन्त्रं ते समाराध्यकेवलम् ।। मराहत णमोक्कारं भावेणाय जो करेदि पयऽमदी। सो सय्य दुक्खं मोक्खं पाविय प्रचिरेण कालेण ।। जो विवेकी जीव प्ररहन्त को भाव पूर्वक नमस्कार करता है वह शीघ्र ही समस्त दुखों से छूट जाता है । अतएव सोना, खाना, जाना, वापिस पाना, शास्त्र का प्रारम्भ करना आदि क्रियायों में प्ररहंत नमस्कार अवश्य करना चाहिए । प्रत्येक जीवात्मा को इस मन्त्र का निरन्तर जाप कर पात्महित साधन करना जरूरी है। एक समय भारत में मन्त्र विद्या का बड़ा प्रचार था। बौद्ध सम्प्रदाय में लोग मन्त्र तन्त्र विद्या का बड़ा अभ्यास करते थे। किन्तु उस समय में भी जैन साधु विद्यानुवाद में उल्लिखित मन्त्र विद्या से सुपरिचित थे। अनेक जैनाचार्य मन्त्र विद्या में निष्णात थे। उनकी वह तपश्चरण युक्त मन्त्र विद्या कभी निष्फल नहीं जाती थी। परन्तु मंत्र तन्त्रादि की शक्ति से सम्पन होते हुए भी किसी कामना के लिए वे इसका प्रयोग नहीं करते थे । यद्यपि उन्हें तपश्चर्या से भी अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त थी, परन्तु किसी भी सांसारिक कार्य के लिए उनका उपयोग करना वे अनचित समझते थे। उनकी निष्काम तपश्चर्या कर्मों की वज शृंखला को तोड़ने के लिए थी । इसीलिए वे भीषण उपसर्ग पौर परीषहों को सहने का उपक्रम करते थे। उनकी समस्त जीवों के प्रति सदभावना कल्याणदायिनी थी। शरीर से भी उनकी निरीहवृत्ति उक्त बात को संद्योतक थी। इस सब कथन से स्पष्ट है कि उनकी सकामाभक्ति की अपेक्षा निष्कामाभक्ति विशेष उपयोगी और कार्य साधिका है। दूसरे जिनकी भक्ति की जाती है वे वीतराग सर्वश हितोपदेशी आदि अनेक गुणों से विशिष्ट है उनके पास ऐसी कोई सामग्री नहीं जिसे वे भक्तों को अर्पित कर सकें। हां उनकी प्रशान्त वीतराग मुद्रा का दर्शन ही दर्शक की भावनाओं की सम्पूर्ति में परम सहायक है। उनका निन्दक और वन्दक के प्रति कोई राग द्वेष नहीं होता। फिर भी भवत के मन की प्रसन्नता, विशुद्ध भावना बाधक कर्मों के रस को हल्का करने पथवा उसे सुखाने में जिनेन्द्र की प्रशांत दिव्य मुद्रा निमित्त होती है। इसी से यह बात स्पष्ट चरितार्थ होती है कि भगवान के प्रसाद से यह सब कार्य सम्पन्न हुया है। इस अधिकार में रत्नत्रय का कपन किया गया है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही रत्नत्रय कहलाते हैं। इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है। रत्नत्रय की पूर्णता होने पर प्रात्माPage Navigation
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