Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 7
________________ ५ अनुग्रह करने में कुदाल होते हैं ऐसे धर्माचार्य सदा वंदनीय होते हैं । जो मुनि रत्नत्रय की प्रधानता के कारण संघ के नायक हैं, और मुख्य रूप से स्वरूपाचरण चारित्र में निमग्न रहते हैं किन्तु कभी-कभी रागांश का उदय होने पर धर्म- पिपासु भव्य जीवों को धर्म का उपदेश देते हैं, दीक्षा देते हैं तथा शिष्यों के दोष निवेदन करने पर प्रयाश्चित भी देते हैं। परन्तु स्वयं अपने भुलगुणों में निष्ठ रहते हैं । णमोकार ग्रंथ परमागम के अभ्यास से और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल होती है जो छह ग्रावश्यकों का निर्दोष रूप से पालन करते हैं। मेरु पर्वत के समान निष्कम्प हैं, शूरवीर हैं। सिंह के समान निर्भीक हैं, श्रेष्ठ हैं, देश कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्य मूर्ति हैं, अन्तरंग परिग्रह से रहित हैं, आकाश के समान निर्दोष हैं ? ऐसे प्राचार्य परमेष्ठी होते हैं । जो संघ के संग्रह-दीक्षा और निग्रह-शिक्षा और प्रायश्चित देने में कुशल हैं, परमागम के कार्य में, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण याचरण, वारणनिषेध, व्रतों के संरक्षण में सावधान हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी सदा वन्दनीय होते हैं । णमो उवज्झायाणं – चतुर्दशविद्यास्थानव्याख्यातारः उपाध्यायाः तात्कालिक प्रवचन व्याख्यातारो वा । प्राचार्यस्यो क्ता शेषलक्षणसमन्विताः संग्रहानुग्रहादि गुणहीनाः । बोस पुरव महोय हिमहिगम्य-सि वस्थिनो सिवत्थीणं । सोलंधरा पत्ता होइसुणीसो उवज्झायो ॥ उपाध्याय परमेष्ठी को नमस्कार हो, चौदह विद्यास्थान के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं । श्रथवा तत्कालीन परमागम के व्याख्यान करने वाले उपाध्याय होते हैं वे संग्रह, यनुग्रह यादि गुणों को छोड़ पूर्व में गए गुगों से युक्त होते हैं । जो साधु चौदह पूर्व रूपी समुद्र में प्रवेश करके परमागम का अभ्यास करके मोक्षमार्ग में स्थित हैं, तथा मोक्ष के इच्छुक श्रावकों-मुनियों को उपदेश देते हैं, वे मुनीश्वर उपाध्याय परमेष्ठी हैं । जो १५ मूलगुणों का पालन करते हैं। रत्नत्रय से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय के धारक हैं, निरंतर धर्मोपदेश में निरत रहते हैं-मुनियों और श्रावकों को परमागम का अध्ययन कराते हैं, और स्वाध्याय में निष्ठ रहते हैं, ऐसे उपाध्याय परमेष्ठी सदावंदनीय होते हैं । णमो लोए सव्व साहूणं मनन्तज्ञानादिशुद्धात्मस्वरूपं साधयन्तीति साधवः । पंचमहाव्रतधरास्त्रिगुप्ति-गुप्ताः अष्टादशशी लसहस्र मैश्चतुरशीतिशत सहस्रगुणधराश्च साधयः । सीह-गय, सह-मि-पशु- मारुद सुरुवहि-मंदिरिन्दू-मणी । लिरिगंबर- सरिता परम-पय-विमग्गया साहू ॥ ढाई द्वीपवर्ती उन सभी साधुयों को नमस्कार हो जो अनन्त ज्ञानादि शुद्ध श्रात्मा के स्वरूप की साधना करते हैं, पंच महाव्रत, पंच समिति मौर तीन गुप्तियों से सुरक्षित हैं, अठारह हजार शील के भेदों को धारण करते हैं मौर चौरासी हजार उत्तर गुणों का पालन करते हैं वे साधु परमेष्ठी १. छत्तीस गुण समग्गे पंच विचारकरण संदरिसे । सिस्सागुग्गहकुसले धम्मायरिये सदा बंदे ।। - धवला पु० १, पृ० ४६ ३.भवला पु० १ १० ५०

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