Book Title: Namokar Granth
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Gajendra Publication Delhi

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Page 6
________________ अमौकार ग्रंप की मन्दता देखी जाती है, उसी प्रकार मोह से जिनकी प्रात्मा व्याप्त रहती है, उनकी स्वानुभूनि में कालुष्य, मन्दता पायी जाती है। अथवा रहस्य के प्रभाव से भी अरिहन संजा प्राप्त होती है। रहस्य अन्तराय कर्म को कहते हैं । अन्तराय का नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाश का अविनाभावो है और अन्तराय कर्म के नाश होने पर अधातिया कर्म भ्रष्ट बीज के समान नि:शा हो जाते हैं। इस तरह अन्तराय कर्म के नाश होने पर अरिहंत संज्ञा प्राप्त होती है। अथवा सातिशय पूजा के योग्य होने से प्रहन् मंज्ञा प्राप्त होती है, क्योंकि गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल और निर्वाण इन पाँचों कल्याणकों में देवों के द्वारा की गई पूजाएँ देव, असुर, मनुष्यों को प्राप्त पूजाओं से अधिक है । अत: इन अतिशयों से योग्य होने से अहन संज्ञा प्राप्त होती है। इन्द्रादि के द्वारा पुज्य, सिद्ध गति को प्राप्त होने वाले अर्हन्त या राग-द्वेष रूप शत्रुओं को नाश करने वाले अरिहन्त अथवा जिस प्रकार जला हुया वीज उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार कर्म नष्ट हो जाने के कारण पुनर्जन्मरहित अर्हन्तों को नमस्कार किया है। कर्मरूपी शत्रुओं के नाश करने तथा कर्मरूपी रज न होने से अनन्त दर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्त सुख और अनन्तवीर्य रूप अनन्त चतुष्टय के प्राप्त होने पर इन्द्रादि के द्वारा निर्मित पूजा को प्राप्त होने वाले प्रहन्त अथवा घातिया--ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त राय इन चारों कर्मों के नाश होने से अनन्तचतुष्टय-रूप विभूति जिनको प्राप्त हो गयी है उन प्रहन्तों को नमस्कार किया गया है । णमोसिद्धाणं-सिद्धाः निष्ठिताः कृत्कृत्याः सिद्धसाध्याः नष्टाष्टकर्माणः । __ --धव. पु. १ पृष्ठ ४६ सिद्धों को नमस्कार हो । जिन्होंने अपने साध्य को सिद्ध कर लिया है और ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों को नष्ट कर दिया है, वे सिद्ध है। और जो अपने ज्ञानानन्द स्वरूप में सदा अवस्थित रहते हैं । जो शानशरीरी हैं, द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नौकर्मरूपी मल से रहित हैं-जिन्होंने गृहस्थ मवस्था का परित्याग ग कर मूनि होकर तपश्चरण द्वारा घातिकम रूप मल का नाश कर अनन्त मतुष्टय रूप भाव को प्राप्त किया है, पश्चात् योग निरोधकर अघातिकर्म का विनाश कर परमौदारिक शरीर को छोड़कर लोक के अग्र भाग में विराजमान हैं, उन निरंजन सिद्धों को नमस्कार हो। णमो पाइरियाण-पञ्चविधमाचारं घरन्ति चार यन्तीत्याचार्याः चतुर्दश विद्या स्थान पारगाः एकादशांगधराः प्राचाराङ्गधरोवा तात्कालिक स्वसमय परसमय पारगो वा मेरु निश्चल: क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव वहिः क्षिप्तमल: सप्तभयविप्रमुक्तः प्राचार्यः । __ प्राचार्य परमेष्ठी को नमस्कार है। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच माघारों का स्वयं आचरण करते हैं। और दूसरों साधुनों से कराते है, उन्हें प्राचार्य कहते हैं । जो चौदह विद्यास्थानों के पारंगत हों, ग्यारह अंग के धारी हों, अथवा प्राचारोग के धारी हों, अथवा तत्कालीन स्वसमय परसमय में पारंगत हों, मेरु के समान निश्चल हों, पृथ्वी के समान सहनशील हों, जिन्होंने समुद्र के समान मल दोषों की बाहर फेंक दिया हो और जो सात प्रकार के भय से रहित हों उन्हें प्राचार्य कहते हैं। प्राचार्य परमेष्ठी के छत्तीस मूलगुण होते हैं-१२ तप, १० धर्म, ५ पाचार, ६ मावश्यक और ३ गुप्ति । इन छत्तीस मूलगुणों का वे सावधानी से पालन करते हैं। और जो शिष्यों के निग्रह

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