Book Title: Namokar Granth Author(s): Deshbhushan Aacharya Publisher: Gajendra Publication Delhi View full book textPage 4
________________ प्रस्तावना प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम णमोकार है। जिसके संकलनकर्ता लक्ष्मीचन्द जी वैनाड़ा, दिल्ली हैं। उन्होंने यह ग्रंथ स्वाध्याय करने वाले साधर्मी भाईयों के हितार्थ संवत् १६४६ में बनाकर समाप्त किया था इस ग्रन्थ में दो अधिकार हैं, प्रथम में णमोकार मन्त्र और उससे सम्बद्ध पंच परमेष्ठियों प्रादि का स्वरूप दिया है । और दूसरे प्राधिकार में रत्नत्रय का विवेचन किया गया है । ग्रन्थ की इस प्रस्तावना में दोनों अधिकारों के सम्बन्ध में संक्षिप्त विचार किया गया है। प्राशा है पाठकों के लिए यह रुचिकर होगा। इस संसार में मानव जीवन के उत्थान का मूल कारण णमोकार मंत्र है। जिसके चिन्तन वंदन स्मरण से आत्मा दुःखों से छुटकारा पा सकता है। मानवों की तो बात क्या पन्नू भी णमोकारमंत्र को श्रवणकर शान्तभाव से प्राणों का परित्याग कर उच्चगति को प्राप्त करते हैं अतः प्रत्येक जीवात्मा को प्रातः काल ब्रह्ममूहूर्त में उठकर हाथ मुंह धोकर शुद्ध वस्त्र धारणकर णमोकार मन्त्र का जाप्य करना अत्यावश्यक है । क्योंकि संसारी जीव राग-द्वेष-मोह और कषाय की परम्परा से पराधीन है। अनादिकाल से दुखी है । राग-द्वपादि विभाष भावों से आत्मा सदा अशान्त एवं दुखी रहता है, कभी भी निराकुल नहीं हो पाता । और दुःख सहा भी नहीं जाता । यद्यपि उससे छूटने का भी उपाय करता है परन्तु उपाय के विपरीत होने से कर्मबन्धन से छूट नहीं पाता और इच्छाओं की पूर्ति न होने से रागो द्वषो-कोधी होता हमा इन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति करता रहता है, तथा मिथ्यादर्शनादि के वश संसार परिभ्रमण करता रहता है। इन विभात्र भावों से छूटने का एक मात्र उपाय मिथ्यात्व का परित्याग करना है, मोर पंच नमस्कार मंत्र के चिन्तन बंदन से परिणामों को विशुद्ध बनाना है जिससे अशुभोदय को शक्ति निर्बल हो जाती है. पण्य की यद्धि होती है, और पुण्य वद्धि से सांसारिक सुख तो मिलता ही है. किन रिणाम विशुद्धि से कर्म को निर्जरा भी होती है और सांसारिक कार्य निर्विघ्न सम्पन्न होने लगते हैं। इतना ही नहीं केवल शुभ-भावों में प्रवृति ही नहीं होती, किन्तु उनकी विशुद्धि भी निरन्तर बढ़ती रहती है । पापों में प्रवृत्ति नहीं होती, तथा आलस्य और भोग लिप्सा कम हो जाती है और आत्मा में विराग रस की अनुभूति उत्पन्न होती है । इस अपराजित मन्त्र में ३५ अक्षर हैं और वह पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप को लिए हुए हैं। प्रातःकाल का समय व्यक्ति के जीवन की सुषमा का समय है। उस समय इस मन्त्र का पाराधन-चितन पापों का नाशक है और उसकी मनोकामना का पूरक होता है। णमो अरिहंताण-पद का उच्चारण करते ही प्रात्मा में अरिहंत की मूर्ति का--धातिकमं के नाशक अरि रज-रहस्य से बिहीन, चौतीस मतिशय और अष्ट प्रातिहार्यो, चार पनन्त चतुष्टय से युक्त, परम वीतरागरूप, देवेन्द्र, नागेन्द्र, और नरेन्द्रों से पूजित वीतराग देव का-साकार स्वरूप सामने ना जाता है । इसी तरह णमो सिद्धाणं' पद से प्रष्टकर्म के विनाशक, प्रव्याबाध सुख से सम्पन्न, लोक के पन्त में विराजमान शान शरीरी सिद्धों के विमल स्वरूप का बोध होने लगता है। णमो माइरियाणPage Navigation
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