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भारतीय दर्शनों में जैन दर्शन का स्थान
अनुभव और तर्क के आधार पर अनेक दृष्टियां विकसित हुई हैं । अनुभव और चिन्तन के तारतम्य से ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है । परिभाषाओं की संरचना में भी अन्तर है। भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण ब्राह्मण और श्रमण-इन दो धाराओं में किया जा सकता है । मीमांसक और वेदान्त ब्राह्मण-धारा के दर्शन हैं। जैन और बौद्ध श्रमण-धारा से जुड़े हुए हैं। न्याय-वैशेषिक भी मूलतः ब्राह्मण-धारा के नहीं रहे हैं। यह परम्परा-स्रोत के आधार पर किया जाने वाला वर्गीकरण है। यह अहेतक नहीं है। फिर भी इससे वह प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, वह संख्या क्षेत्र में अपेक्षित है। सांख्य और जैन दर्शन में जो चिन्तन का सामीप्य है, वह सांख्य और मीमांसा में नहीं है । वैशेषिक के परमाणुवाद और वेदान्त के ब्राह्मवाद में कोई समानता नहीं है । इसलिए चिन्तन-धाराओं का वर्गीकरण अपेक्षित है । परम्पराओं के आधार पर किया जाने वाला वर्गीकरण दार्शनिक विकास और मूल्यांकन में विशेष उपयोगी नहीं है । अनेकान्त के व्याख्याकार आचार्यों ने चिन्तन के आधार पर दर्शनों का वर्गीकरण कर दर्शन के क्षेत्र में एक नया अध्याय जोड़ा था । उससे मूल्यांकन का दृष्टिकोण बदल जाता है । अब तक दर्शन के समीक्षकों ने वेदान्त के आधार पर दर्शनों का मूल्यांकन किया है। किसी एक दर्शन के आधार पर तटस्थ मूल्यांकन करना सम्भव नहीं लगता । दृष्टियों के आधार पर वह सम्भव हो सकता है। जैन दार्शनिकों ने दृष्टियों के आधार पर दर्शनों की समीक्षा की। उन्होंने किसी की दृष्टि को हेय या असत्य घोषित नहीं किया। सत्यानुसन्धान की एक दृष्टि को इतर दृष्टियों से जोड़कर उसकी सत्यता का प्रतिपादन किया। अभेद-दृष्टि का जितना विकास वेदान्त ने किया, उतना अन्यत्र दुर्लभ है। भेददृष्टि के विकसित प्रतिपादन में बौद्ध सबसे आगे हैं । जैन दर्शन ने अभेद और भेद में अविरोध की स्थापना की । उसके अनुसार अभेद और भेद सापेक्ष हैं । उन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता। अभेद और भेद-दोनों एक ही पदार्थ को देखने की दो दृष्टियां हैं । सामान्य की दष्टि से देखने पर अभेद ही अभेद फलित होता है। और विशेष की दृष्टि से देखने पर भेद ही भेद फलित होता है । दोनों दृष्टियां संयक्त होती हैं तब सत्य का दर्शन होता है । सांख्य-सम्मत
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