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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि और शब्द शान्त । मैने गहरे मे उतर कर अनुभव किया---मैने जब-जब शब्द का सहारा लिया तब-तब सत्य को असत्य की दिशा मे प्रस्थान करते देखा और अखण्ड को खण्डित होते देखा। पर मैने अनुभव किया----जब-जब मैने शब्द को छोड़ा तब-तब मैने सत्य-खण्ड को भी अभिव्यक्ति देने में अपने आप को असमर्थ पाया । सत्य की खोज में एक सन्तुलन अपेक्षित है । शब्द और अशब्द, विकल्प और निर्विकल्प, विचार और दर्शन, तर्क और अनुभव तथा परोक्ष और प्रत्यक्ष---इन सबका सन्तुलन । मानव जाति के विकास आधार अंगठा है। वह अंगुलियों की विपरीत दिशा मे है, इसबिए मनुष्य की कर्मजा शक्ति सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ है । यदि अंगूठा अंगुलियों की श्रेणी में होता तो लिपि, कला और शिल्प-ये सब स्वप्नजगत् के सत्य होते, यथार्थ की भूमि पर नहीं उतर पाते।
सत्य को दो विपरीत दिशा में खोजा जा सकता है । शब्द के अर्थ की खोज का भी यही नियम है। सत्य के पर्याय होते हैं और शब्द के भी अन्नत पर्याय होते हैं । इसलिए हम आश्वत हैं कि सत्य की खोज का द्वार कभी बन्द नही होता। हर पीढ़ी को उसकी खोज का अधिकार प्राप्त रहेगा। भाषाशास्त्रीय दृष्टि से शब्द के अर्थ की उत्क्रान्ति, विकास और परिवर्तन का यही आधार है। यह अहंकार किसी युग चेतना को नहीं होना चाहिए कि सत्य खोज लिया गया है। अब भविष्य में उसकी खोज की आवश्यकता नहीं है। यह अहंकार किसी व्यक्ति को नहीं होना चाहिए कि मैं जो कहता हूं वही सत्य है अथवा मैंने इस शब्द का जो अर्थ किया है, वही अर्थ यथार्थ है। ऐसा आग्रह सबसे बड़ा असत्य होता है। प्रश्न होगा-फिर सत्य क्या है ? उत्तर बहुत सीधा है। दूसरा जो कहता है, उसमें भी सत्यांश है । उस सत्यांश की खोज करना वास्तव में सत्य है । __सत्य के दो रुप हैं--सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म सत्य को सूक्ष्म और स्थूल सत्य को स्थूल उपायों द्वारा खोजा सकता है। मैने वर्तमान की कठिनाई का अनुभव किया है कि आज का धार्मिक और दार्शनिक सूक्ष्म सत्य की खोज स्थूल उपायों द्वारा कर रहा है । सूक्ष्म सत्य की खोज के लिए भी वह केवल शब्द विचार
और तर्क का प्रयोग कर रहा है। इसलिए उसका दर्शन तर्कमूलक बन गया है । उसके फलित होते है-विवाद, संर्घष और जय-पराजय का मनोभाव । दो हजार वर्ष पहले का दार्शनिक इन्द्रिय और मन को पटु या सूक्ष्म बना अथवा अतीन्द्रियज्ञान को प्राप्त कर सत्य खोजता था। उसका दर्शन दर्शनमूलक होता था। उसके
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