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विपश्यना की अतीत यात्रा
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गई कि यह पद्धति वीतरागता के अभ्यास की पद्धति है । इसमें चमत्कार, प्रलोभन या मिथ्या कल्पना के लिए कोई अवकाश नहीं है । यह यथार्थवादी दृष्टिकोण से निष्पत्र यथार्थवादी साधना है ।
मैं अभ्यास- काल में अभ्यास करता गया । उसके बाद अवकाश के क्षणो में विश्पयना की आचारांग के सूत्रो से तुलना करता गया । मुझे लगा आचारांग सूत्र मे विपश्यना की पूर्ण पद्धति प्रतिपादित है । किन्तु परम्परा की विस्मृति होने के कारण उसकी स्पष्ट पकड़ नहीं है ।
विपश्यना का मूल तत्त्व है -- अप्रमाद और शरीर- दर्शन । यथार्थ को जानना और घटना के प्रति तटस्थ रहना । आचारांग का एक सूत्र है- पुरुष अप्रमाद की साधना में उत्थित होकर प्रमाद न करे (५ / २३) । अप्रमाद की साधना का सूत्र है— शरीर की विपश्यना । इस औदारिक (स्थूल) शरीर का यह वर्तमान क्षण है । इस प्रकार जो वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है; वह सदा अप्रमत्त होता है (५/२१) ।
सामान्यत: शरीर की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अन्तर की ओर प्रवाहित करने का प्रथम साधन है स्थूल शरीर । इस स्थूल शरीर के भीतर तैजस और कर्म—ये दो सूक्ष्म शरीर हैं। उनके भीतर है आत्मा । स्थूल शरीर की क्रियाओं, और संवेदनाओं को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तैजस और कर्म शरीर को देखने लग जाता है। शरीर दर्शन का दृढ़ अभ्यास और मन सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है । जैसे-जैसे साधक स्थूल दर्शन से सूक्ष्म दर्शन की ओर आगे बढ़ता है वैसे-वैसे उसका अप्रमाद बढ़ता जाता है ।
साधक चक्षु को संयत कर लोक (शरीर ) को देखता है। वह लोक के अधोभाग के देखता है, ऊर्ध्वभाग को देखता है और तिरछे भाग को देखता है (२/१२५) । जो पुरुष शब्द, रुप, रस, गंध और स्पर्श को भली भांति जान लेता है, उनमे राग-द्वेष नहीं करता- -तटस्थ रहता है, वह आत्मवान्, ज्ञानवान्, वेदवान्, धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है ( ३ / १४) ।
विपश्यना की बौद्ध परम्परा में धर्मवान् शब्द ही उपयुक्त है। जैनों की विपश्यना पद्धति में आत्मवान् शब्द भी संगत है। जो पुरष अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है वह मुनि (ज्ञानी) कहलाता है । वह धर्मविद् और ऋजु होता है(३/५)। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला देती है, वैसे ही समाहित आत्मा
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