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संस्कार-परिष्कार के सूत्र
हर आदमी के जीवन के दो पक्ष हैं—भीतरी और बाहरी । बाहरी बहुत सपष्ट है । उसके बारे में हम जानते है और उसे मूल्य देते है। भीतरी जीवन के बारे में हमारी कोई जानकारी नहीं हैं, इसलिए हमारी दृष्टि में उसका मूल्य भी नहीं है। हम अपने आचरणों और व्यवहारों के बारे में सोचते हैं तो मन में सहज ही प्रश्न उठता है कि इनका प्रेरक तत्त्व कौन है ? कहां है ? समाधान भी हम बाहरी दुनियां में खोजते हैं और वह समाधान है परिस्थितिवाद।
परिस्थिति का हमारे जीवन में हस्तक्षेप नहीं हैं, यह तो नहीं कहा जा सकता किन्तु जीवन की सारी प्रेरणाएं उसी से उत्पन्न होती है, यह भी कहा जा सकता। समान परिस्थिति में असमान आचरण और व्यवहार हमें देखने को मिलता है। यह असमानता भी चिन्तन को आगे बढ़ाती है—प्रेरणा का तत्त्व केवल परिस्थिति ही नहीं हैं, कोई दूसरा भी है। गहरे में उतरकर जिन्होंने खोज की उन्हें पता चला कि आदमी परिस्थति से उतना बंधा हुआ नहीं हैं, जितना अपनी संस्कार-श्रृंखला से बंधा हुआ है। संस्कारों की खूटी
ऊंटों का काफिला जा रहा था। सांझ के समय विश्राम के लिए ठहरा। पास में थी एक धर्मशाला । काफिल के मुखिया ने खूटियां गाड़ी और ऊंटों को बांध दिया। एक खूटी कम रह गई । मुखिया ने धर्मशाला के कर्मचारी से खूटी मांगी। वह नहीं मिली । कर्मचारी ने कहा- 'चलो, खूटी के बिना ही मैं ऊंट को बांध देता हूँ कर्मचारी मुखिया के साथ आया और हथोड़े से खूटी गाड़ने का स्वांग रचा। ऊंट बैठ गया।
प्रभात का समय हुआ। खूटियां उखड़ने लगीं। ऊंटों का काफिला आगे बढ़ने लगा। ऊंटों के चले जाने पर भी शून्य में गाड़ी खूटी वाला ऊंट नहीं उठा । बहुत प्रयास करने पर भी वह नहीं उठा । मुखिया ने धर्मशाला के कर्मचारी को सारी स्थिति बताई। वह आया और खूटी को उखाड़ने का स्वांग रचा। ऊंट तत्काल खड़ा हुआ और आपने काफिले में जा मिला।
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