Book Title: Meri Drushti Meri Srushti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 177
________________ महान् पर्व संवत्सरी १७५ थी । उस समय उनकी ऋजुता साकार हो उठी थी । इस प्रक्रिया से उन्होंने अपनी शुद्धि कर एक आदर्श उपस्थित किया था । वह मानदंड बन गया और आचार्यश्री वैसा ही कर रहे हैं । सहनशीलता और क्षमा हमारे संघ का जीवातु है । वह हमारी परम्परा है । उस परम्परा से मैं भी जुड़ा हुआ हूँ। मुझे भी आचार्यवर ने उसी श्रृंखला में जोड़ दिया है । यद्यपि मैं साधु-साध्वियों के सीधे संपर्क में अभी कम हूँ । सारा भार आचार्यश्री पर है। आचार्यप्रवर अपना भी कार्य करते हैं और मेरा भी कार्य करते हैं। मुझे उन्होंने बिलकुल मुक्त रखा है। फिर भी कुछ-कुछ संपर्क रहता है । प्रियता-अप्रियता के भाव आ सकते हैं, आते हैं, आये हैं। मैं अपनी शुद्धि के लिए, अपनी चिकित्सा के लिए और सिद्धि के लिए सबसे क्षमाप्रार्थी हूँ और सबको क्षमा देता हूँ। मैं सतत यह कामना करता हूँ कि मेरे में शुद्धि, चिकित्सा और सिद्धि का भाव प्रतिदिन वृद्धिगत होता रहे और ऋजुता सदा जागृत रहे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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