Book Title: Meri Drushti Meri Srushti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 154
________________ १५२ मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि क्षण उसे बनाए रखने की योग्यता प्राप्त करता है। वस्तु में यह परिणमन की क्षमता नहीं है, अगुरुलघुत्व का नियम विश्व की स्थिति का आधार है। विश्व में जितने भी द्रव्य थे, उतने ही हैं और उतने ही रहेंगे। न नये का उत्पाद होगा, न किसी का व्यय होगा। ‘यावन्तस्तावन्त का एवं' यह अगुरुलघुत्व के कारण ही है" डॉ० रमन्ना अनेकांत के संदर्भ में विश्व-स्थिति की व्याख्या सुनने में इतने लीन हो गए कि उन्हें जैन दर्शन विज्ञान से भिन्न दिखाई नहीं दिया। अगुरुलघुत्व का नियम उन्हें बहुत वैज्ञानिक लगा । इस संबंध में उन्होंने कहा-“हम भी मानते हैं कि संसार में जो कुछ है वही रहेगा। कोई नयी चीज कभी पैदा हो ही नहीं सकती। यह नियम विश्व-स्थिति का सार्वभौम नियम हैं। यह अस्तित्व और अनस्तित्व का निर्णय इसी के आधार पर होता है।" युवाचार्यश्री-“वस्तु के अस्तित्व को समझने के लिए दो बातों को समझना और जरूरी है-व्यक्त का अस्तित्व और अव्यक्त का अनस्तित्व । वस्तु की बहुत सी अव्यक्त पर्याएं वर्तमान में नहीं होती । वे ही जब व्यक्त हो जाती हैं तब अस्तित्व में आ जाती हैं। यह परिणमन का सिद्धांत काल-सापेक्ष ही नहीं, स्वरूप-सापेक्ष भी है। जिन द्रव्यों में अगरुलघुत्व है, परिणमन है, वे ही.वास्तव में अस्तित्वशील हैं। इनके आधार पर ही त्रिपदी का नियम बनता है। इसमें उत्पाद और व्यय दोनों साथ-साथ घटित होते हैं, फिर भी मूल अस्तित्व सुरक्षित रहता है। जिस पदार्थ का अस्तित्व ही न हो, उसमें परिणमन का प्रश्न ही नहीं उठता। ___ विज्ञान के नियम निश्चित नहीं होते। क्योंकि उनका निर्धारण ज्ञान जगत् के आधार पर होता है। जब भी अज्ञात ज्ञात होता है, नियम बदल जाता है। विज्ञान ने माना है कि प्रकाश की गति सर्वोत्कृष्ठ है। किन्तु सापेक्षता के नियम से देखें तो यह कोई अन्तिम बात नहीं हैं । जैन आगमों में ऐसे परमाणु और परमाणु-समवायों का उल्लेख है, जिनकी गति प्रकाश से बहुत अधिक तीव्र है। वैज्ञानिक दृष्टि से ध्वनि की गति प्रकाश जितनी है, क्योंकि उसका वाहक प्रकाश है। किन्तु जैन दर्शन के अनुसार भाषा के परमाणु एक समय (काल का सबसे छोटा भाग) में सारे लोक में व्याप्त हो जाते हैं। ये सब नियम सापेक्षता की दृष्टि से ज्ञातव्य हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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