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अहिंसक समाज-संरचना कैसे होगी
११७ पाते। अभिमानी मनुष्य दूसरों को हीन मानकर वर्गभेद उत्पन्न कर देते हैं। मायावी मनुष्य दूसरों को ठगते रहते हैं। लोभी मनुष्य अपने हितों की पूर्ती के लिए दूसरों के हितों का विघटन कर डालते हैं। जिस समाज में उच्चता और हीनता, ठगाई और अपने स्वार्थों को प्राथमिकता देने की मनोवृत्ति होती है, वह शासनमुक्त कैसे हो सकता है? यदि महर्षि मार्क्स भौतिक व्यवस्थाओं के समीकरण के साथ आन्तरिक परिवर्तन की आध्यात्मिक प्रक्रियाओं को जोड़ देते तो अवश्य ही साम्य का वाद साम्य की निष्ठा में बदलकर शासनमुक्त होने की ओर अग्रसर हो जाता । अहिंसक समाज में भौतिक व्यवस्थाओं के समीकरण के साथ आन्तरिक परिवर्तन की आध्यात्मिक प्रक्रिया समन्वित होगी, इसीलिए वह शासनमुक्ति की ओर सतत गतिशील होगी। व्यक्तिगत स्वामित्व
शासनमुक्त समाज की रचना में सबसे बड़ी बाधा है व्यक्ति की संग्रहपरायण मनोवृत्ति । हर आदमी अर्थ का संग्रह करता है और उस पर अपना स्वामित्व स्थापित करता है। क्या अहिंसक समाज में यह व्यक्तिगत स्वामित्व मान्य हो सकता है ? प्रवृत्ति का विकास प्रेरणा से होता है । अपने सुख व अपने स्वत्व की प्रेरणा बहुत प्रबल होती है । वैयक्तिकता को विलुप्त करने से विकास की प्रेरणा क्षीण हो जाती है। अतः अहिंसक समाज में व्यक्तिगत स्वामित्व एक सीमित अर्थ में ही मान्य हो सकता है । अहिंसक समाज का दूसरा पहलू होगा अपरिग्रही समाज । अहिंसा और अपरिग्रह एक-दूसरे से विच्छिन्न होकर नहीं रह सकते। अहिंसक समाज का मुख्य सूत्र है-इच्छा-संयम, संग्रह-संयम और प्रवृत्ति का विकेन्द्रीकरण । इच्छा का विस्तार, अर्थ का केन्द्रीकरण और हिंसा-ये सब साथ-साथ चलते हैं।
अहिंसक समाज का सदस्य व्यक्तिगत धन कितना रखे, यह संख्या निर्धारित करना बड़ा जटिल है । इसका सरल सूत्र यह हो सकता है—जितनी आवश्यकता, उतना संग्रह । एक मनुष्य श्रम कर धन का अर्जन करता है, वह बहुत बड़ा संग्रह नहीं कर पाता। किसी मनुष्य में व्यावसायिक बुद्धि प्रबल होती है। वह बुद्धि बल के सहारे विपुल धन कमा लेता है । श्रमिक की आवश्यकता श्रम से नियमित होती है, अतः यह यथार्थ होती है । बौद्धिक की आवश्यकता भी बौद्धिक हो जाती है। उसकी कहीं कोई सीमा नहीं होती। फिर 'जितनी आवश्यकता उतना संग्रह' इसका क्या अर्थ होगा? अहिंसक समाज का सदस्य श्रमिक या बौद्धिक होने से
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