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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि प्रेक्षाध्यान की दृष्टि से आपकी उपस्थिति को लक्षित कर मैंने उपर्युक्त प्रश्न किया था।"
मेरी इस टिप्पणी पर एक क्षण मुस्कराते हुए युवाचार्यश्री ने अपनी राय प्रकट करते हुए कहा- “जब आचार्यश्री बालोतरा जा रहे हैं तब मैं भी वहां जाना चाहता हूँ और आचार्यश्री के साथ ही रहना चाहता हूँ । यद्यपि आचार्यवर ने मुझे कहा था कि तुम यहां रहो, हम यों ही काम चला लेंगे। पर मैंने निवेदन कर दिया कि आप तो मेरे बिना काम चला लेंगे किन्तु मैं आपके बिना काम नहीं चला सकता।"
कितना सहज और निरभिमानिता का विचार । एक क्षण तो मैं देखती ही रह गई और इस बात को भूल गई कि मुझे कुछ और भी पूछना है। ज्यों ही मैं सचेत हुई, चालू क्रम की श्रृंखला में एक और प्रश्न जोड़कर मैंने पूछाः
-~-आप आचार्यवर के साथ जाना चाहते हैं या रहना चाहते हैं, यह तो व्यक्तिगत स्वार्थ की बात हई। यहां आपकी जो उपयोगिता है, क्या वह उस व्यक्तिगत स्वार्थ से बड़ी नहीं है ?
अपने दर्शन केन्द्र पर हाथ का हल्का-सा दबाव डालते हुए युवाचार्यश्री ने मेरी जिज्ञासा के समाधान में कहा--- "क्या व्यक्तिगत स्वार्थ की उपयोगिता नहीं हैं? अहमदाबाद में उपयोगिता की बात भविष्य के गर्भ में है। उपयोगिता के प्रकट होने पर क्या हमें यात्रा के लिए नहीं सोचना पडेगा? मेरी इच्छा की बात तो यही है कि मुझे आचार्यवर का सान्निध्य मिले । आदेश की बात मैं नहीं कह रहा हूँ । यदि आचार्यश्री आदेश दें तो मुझे कहीं भी रहना पड़ सकता है। किन्तु जहां तक मैं समझता हूँ, आचार्यश्री मेरी इस इच्छा का मूल्यांकन करेंगे।" ___अपने आचार्य की इच्छाशक्ति अपनी इच्छाशक्ति से जुड़ी होने का विश्वास उसी व्यक्ति को हो सकता है जो अपना सब कुछ निछावर कर एकमात्र अपने गुरु का होकर रह जाता है। युवाचार्यश्री आयार्यश्री के प्रति नेचुरली और लॉजिकली--दोनों ही दष्टियों से समर्पित हैं. इसलिए वे बिना झिझक कह गए कि “आचार्यवर मेरी इच्छा का मूल्यांकन करेंगे।" उस चर्चा के बीच मैंने युवाचार्यश्री का ध्यान उस बात की ओर खींचना चाहा जिसकी निष्पत्ति जानने के लिए हमारे मन में ललक थी। उक्त संदर्भ को किसी साहित्यिक परिवेश में उलझाए बिना ही मैंने पूछाः
-आपने अहमदाबाद नगर प्रवेश के दिन प्रथम प्रवचन में कहा था कि
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