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अतीत का अनावरण
वि० सं० २००० मेरे जीवन में नये उन्मेष का वर्ष है। चौबीसवें वर्ष में प्रवेश के साथ-साथ मुझे संस्कृत, प्राकृत और दर्शनशास्त्र के अनेक ग्रन्थों के अध्ययन का सहज अवसर मिला । उसी वर्ष मैंने हिन्दी में लिखना शुरू किया। मैं संस्कृत से एक साथ हिन्दी में आया, इसलिए उस समय की मेरी हिन्दी संस्कृतनिष्ठ ही रही, फिर भी हिन्दी में लिखना मुझे अच्छा लगा। कुछ मुनियों का आग्रह था कि मैं पचीस बोल' की हिन्दी में व्यख्या लिखें । मेरे मन में संकोच था । हिन्दी में मैंने कभी कुछ-लिखा नहीं था। जो कुछ लिखना होता, वह सारा संस्कृत में ही लिखता। कभी-कभी प्राकृत में भी लिखता । ये दोनों पुरानी भाषाएं हैं। लोग इन्हें मृतभाषा कहते हैं । अतीत जीवित कैसे होगा? वह मृत ही होगा। जीवित केवल वर्तमान होता है । इसलिए जीवित है । मैं भाषा के साथ-साथ दर्शन का विद्यार्थी रहा हूँ। वह मेरा सर्वाधिक प्रिय विषय रहा है। उसे मैंने अनेकान्त के आलोक में पढ़ा है। अनेकान्त का विद्यार्थी किसी को सर्वथा जीवित अथवा सर्वथा मृत कैसे मान सकता है ? मैंने वर्तमान के साथ संपर्क स्थापित किया, पर अतीत के साथ स्थापित संपर्क को कभी कम नहीं किया। दोनों में संतुलन बना रहा । मैंने हिन्दी में पचीस बोल' की व्याख्या लिखी और वह ग्रन्थ 'जीव-अजीव' के नाम से प्रकाशित हुआ। यह मेरी पहली रचना थी हिन्दी के क्षेत्र में और दर्शन के क्षेत्र में भी।
प्रो० हीरालाल रसिकदास कापड़िया अहिंसा के बारे में एक ग्रन्थ का संकलन कर रहे थे। उन्होंने आचार्यश्री के पास एक प्रस्ताव भेजा--आचार्य भिक्षु के अहिंसा सम्बन्धी विचारों को उस ग्रन्थ में मैं देना चाहता हूँ। मुझे हिन्दी में उनके विचारों का एक संकलन उपलब्ध कराएं। आचार्यश्री उस समय चाड़वास (चूरू,राजस्थान) में विराज रहे थे। उन्होंने मुझे बुलाकर पूछा। - 'क्या तुम हिन्दी में निबन्ध लिख सकते हो?' मैंने कहा-'लिख सकता हूँ ।' आचार्यवर ने कहा'अहिंसा के संबंध में आचार्य भिक्षु के विचारों पर एक निबन्ध लिखो।' मैनें आचार्यवर के आदेश को शिरोधार्य किया और कार्य प्रारम्भ कर दिया। कार्य
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