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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि आचार्यश्री के पास रहकर मैं जो अध्ययन कर सकता था, वह वहां नहीं हुआ । चातुर्मास के पशचात् मैं फिर आचार्यवर के पास पहुंचा और फिर अध्ययन का क्रम चालू हो गया । एक मुनि ने कहा - ' आपने इनको अलग क्यों भेजा ?' आचार्यश्री ने कहा—‘इनका स्वभाव संकोचशील बहुत है । संकोच को कम करने के लिए मैंने इन्हें अलग भेजा । व्याख्यान देना बहुत जरुरी है । यहां मेरे पास व्याख्यान देने की कला भी नहीं सीखी जाती । इसलिए भी अलग भेजना जरुरी था ।' मैं यह सारी बात एक तटस्थ श्रोता का भांति सुन रहा था। मैंने सोचा- मेरे आचार्य मेरे लिए जो भी प्रिय या अप्रिय करते हैं, वे किसी चिन्तन के साथ करते है, मेरे हितों को ध्यान में रखकर करते हैं । इसलिए आचार्यश्री जो भी करें उसमें तार्किक बुद्धि का प्रयोग अपेक्षित नहीं लगता । मैं दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र का विद्यार्थी था, फिर भी आचार्यश्री के आदेशों-निर्देशों को प्रायः बिना तर्क के स्वीकार करने में सफल रहा हूं। मुझे आचार्यवर पर विश्वास रहा है और वे भी मुझ पर विश्वास करते रहे हैं । कलकत्ता में जापान की बमबारी हुई । तेरापंथी महासभा के पुस्तकालय की हजारों-हजारों पुस्तकें गंगाशहर में लायी गई । आचार्यवर का वहां चातुर्मास हुआ। मुझे संस्कृत और प्राकृत की बहुत पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। मैं मानता हूं, उस चातुर्मास में मेरे अध्ययन की नयी दिशाएं उद्घाटित हुईं। मैं सायंकाल प्रतिक्रमण के पश्चात् आचार्यवर की वन्दना करने गया । पास में ही मंत्री मुनि मगनलालजी स्वामी बैठे थे । वन्दना के अनन्तर उन्होंने पूछा— 'आजकल क्या कर रहा है' ? मैंने कहा – 'कर्म-ग्रन्थ पढ़ रहा हूं । तत्त्वार्थसूत्र की टीका पढ़ रहा हूं । और भी कुछ नाम गिनाए ' । वे तत्काल आचार्यश्री की ओर मुड़े और बोले - 'महाराज ! यह इतने ग्रन्थ पढ़ रहा है । मूल धारणा में पक्का तो है न ? कोई खतरा तो नहीं है ?' आचार्यवर ने कहा- 'कोई खतरा नहीं है । सब ठीक है ।' विश्वास विश्वास बढ़ता गया । गुरु जब इतना विश्वास करे तो शिष्य जी भरकर उस विश्वास की सुरक्षा का प्रयत्न करता है । मैंने इस सच्चाई को जीवन में अनेक बार साकार होते देखा है ।
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मेरे मुनि - जीवन का पांचवां दशक चल रहा है । और मेरे विद्यार्थी - जीवन का भी पांचवां दशक चल रहा है। इन पांच दशकों में आचार्यश्री तुलसी ने मुझे जितनी प्रेरणाएं दी, उतनी प्रेरणाएं एक गुरु ने अपने शिष्य को दीं या नहीं दीं, यह अनुसंधान का विषय है । शताब्दियों में ही कोई विरला गुरु होता है जो अपने शिष्य को इतनी प्रेरणा देता है। मैंने केवल तेरह वर्ष के मुनि-जीवन का एक विहंगावलोकन किया है। प्रेरणा के मुख्य स्त्रोतों का अभी स्पर्श भी नहीं हुआ
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