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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि मुस्करा दिए । उन्होंने कोई टिप्पणी नही की। मंत्री मुनि मगनलाल जी स्वामी वहीं बैठे थे। उन्होंने कहा-नाथूजी (वे मुझे इसी सम्बोधन से सम्बोधित किया करते थे) के अक्षर तो छत पर सुखाने जैसे हैं। छत पर उपले सुखाए जाते हैं। ये अक्षर भी वैसे ही टेडे-मेढ़े हैं । यह था उनके कहने का भाव । मुझे कुछ संकोच का अनुभव हुआ। बात वही समाप्त हो गई। पर अन्तर्मन मे बात समाप्त नहीं हुई । “मैं पीछे नहीं रहूंगा, सबसे आगे जाऊंगा'-अन्तश्चेतना में यह संकल्प जाग गया और दीक्षा-पर्याय के तीन वर्ष पश्चात् वह संकल्प बाह्य जगत में प्रकट होने लगा।
पूज्य कालूगणी बीकानेर राज्य के थली प्रदेश से प्रस्थान कर जोधपुर चातुर्मास करने जा रहे थे। डीडवाना पहुंचते-पहुंचते मेरी आंखों में ‘दाने' पड़ गए । उपचार किया पर कोई लाभ नही हुआ। आंखों से पानी बहने लगा । पाठ बिलकुल बन्द हो गया। मेरे सहपाठी साधुओं को आगे बढ़ने का अच्छा मौका मिल गया। डीडवाना में मुनि तुलसी को नाममाला सुना रहा था। उच्चारण में अशुद्धियां आने लगीं। मुनिवर ने उलाहने के भाव में कहा-मैं तुम्हें आगे कुछ नही पढ़ाऊंगा। आगे का अध्ययन बन्द करो । जो ग्रन्थ कंठस्थ किए हुए है, उन्हें शुद्ध करो, फिर आगे बढ़ो।
हम विहार करते-करते लूनी जंक्शन पहुंचे। पूज्य कालूगणी ने बालोतरा की ओर विहार किया और मेरी आंखों से पानी ज्यादा गिरने लगा, इसलिए मुझे मुनि हेमराजजी के साथ जोधपुर भेज दिया। पढ़ना बिलकुल बन्द था। मुनि हेमराजजी ने मुझे प्रोत्साहित किया—तुम प्रतिदिन कंठस्थ-पाठ का जितना पुनरावर्तन करोगे उतना मै अंकित करता जाऊंगा और पुज्य कालूगणी के यहां पधारने पर उन्हें सब निवेदित कर दूगां । मैंने पुनरावर्तन शुरु किया। अभिधान चिन्तामणि के पन्द्रह सौ से अधिक श्लोक है । मैं एक दिन में कई बार उसका पुनरावर्तन कर लेता। ढाई मास के पश्चात् पूज्य गुरुदेव चातुर्मास के लिए वहां पधारे । मुनि हेमराजजी ने मेरे पुनरावर्तन का लेखा-जोखा उनके चरणों में प्रस्तुत किया। वह पुनरावर्तन कई लाख श्लोकों की संख्या का हो गया था। पूज्य कालूगणीजी बहुत प्रसन्न हुए और मुझे साधुवाद दिया और साथ-साथ मुनि हेमराजजी को भी साधुवाद मिला । मैं अपने विद्यागुरु के पास गया । मैंने पाठ के पुनरावर्तन की बात बताई। वे प्रसन्न हुए, पर पूरे प्रसन्न नहीं हुए। उन्हें पता था कि मैंने गलतियों भरे पाठ का ही पुनरावर्तन किया है । जब उन्हें दशवैकालिक,
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