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विपश्यना की अतीत यात्रा अणुव्रत न्यास द्वारा संचालित अध्यात्म-साधना केन्द्र मे विपश्यना शिविर का आयोजन । श्री सत्यनारायणजी गोयनका की उपस्थिति । उसमें कुछ गृहस्थ साधक थे। अधिकांश साधु-साध्वियों का प्रवेश था। मैं भी उसमे सम्मिलित हुआ। साधना पहले से चल रही थी । ध्यान का क्रम भी चालू था । पर जिज्ञासा थी विपश्यना पद्धति के विषय में।
जैन सूत्रो में पहला सूत्र है 'आयारो' (आचारंग)। उसे पढ़ने वाला 'लोगविपस्सी' शब्द से अपरिचित नहीं हो सकता। 'लोक' का अर्थ है-शरीर और 'विपस्सी' का अर्थ है--गहरे में उतरकर उसे देखने वाला। ध्यान का अभ्यासी शरीर 'विपश्यी' होता है । मैं भी इस अर्थ से अपरिचित नहीं था।
आचारांग तथा अन्य जैन साहित्य में विपश्यना के तत्त्व भरे पड़े हैं, पर उसकी व्याख्या विस्मृत हो चुकी, यह कहने में कोई सकोंच का अनुभव नहीं होता। कितनी शताब्दियों से जैन साधक विपश्यना की पद्धति से अपरिचित हैं, यह अनुसन्धेय है । किन्तु यह असंदिग्ध है कि विपश्यना ध्यान की परमपरा उनमे प्रचलित नहीं है। मै शिविर मे गया। केवल अभ्यास के लिए ही मैं नही गया: तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि भी मेरे सामने थी। जैन परम्परा में लुप्त पद्धति को पकड़ने का ध्येय भी मेरे सामने था । एक ही श्रमण परम्परा की दो धाराओं—जैन
और बौद्ध–में ध्यान की पद्धति समान न हो, उसमें आश्चर्य हो सकता है। यदि वह समान हो तो कोई आश्चर्य नही होना चाहिए । बौद्ध परम्परा मे विपश्यना ध्यान की पद्धति प्रचलित है । जैन परमपरा में वह पद्धति प्रचलित नहीं है किन्तु उसका आधार और उसके मौलिक तथ्य विद्यमान है । उनके आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि किसी समय यह पद्धति जैन परम्परा मे प्रचलित थी। भगवान् महावीर इस पद्धति से ध्यान करते थे, यह बहुत प्रामाणिक तथ्य है।
गोयनकाजी ने शिविरार्थियो को आनापासती का अभ्यास शुरु कराया। मुझे जैन परम्परा में प्रचलित नासाग्रदृष्टि के ध्यान की स्मृति हो आयी । गोयनकाजी बता रहे थे कि मन को ऊपर के होंठ पर केन्द्रित करो। हर लोग नासाग्र पर मन
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