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गीता : संदेश और प्रयोग नय के वक्तव्य से भिन्न होता है । उसके अनुसार यह सारा जगत् संवादितापूर्ण है। प्रत्येक द्रव्य समन्वय के सूत्र से पिरोया हुआ है । इसीलिए एक को जानने वाला सबको जानता है और सबको जानने वाला ही एक को जान सकता है। एक में सब और सब में एक—इस सार्वभौम दृष्टि में विसंवादिता में लिए कोई अवकाश नहीं है।
वर्तमान युग की समस्या है विसंवाद-ज्ञान और आचरण की दूरी, कथनी और करनी की दूरी अविसंवादिता की खोज है। उसका बहुत अच्छा माध्यम है गीता। यह व्यापक समस्या है कि ज्ञान और आचरण का मध्यवर्ती सेतु मनुष्य को उपलब्ध नहीं है । बराई को बराई जानने वालों की कमी नहीं है । इस अवस्था में 'ज्ञान-अग्नि से कर्म दग्ध हो जाते हैं, यह वाक्य अर्थवान नहीं लगता । क्या ज्ञान की अनेक कोटियां है? वह किस कोटि का ज्ञान है, जिससे कर्म दग्ध हो जाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए यह ज्ञातव्य है कि गीता केवल सिद्धान्त ग्रन्थ नहीं है । वह प्रयोग-ग्रन्थ भी है । उसमे अनेक प्रयोग निर्दिष्ट हैं । जीवन को सिद्धान्त की अपेक्षा प्रयोग अधिक प्रभावित करते है । समस्या यह है कि सिद्धान्त प्रयोग की अपेक्षा अधिक सरल है । सिद्धान्त की परम्परा प्रचलित है, प्रयोग की परम्परा अविच्छिन्न नहीं हैं। गीता की प्रवचनकार अनेक हैं। उसका प्रयोगकार खोजने पर कोई विरल ही मिलेगा । ज्ञान आचरण का मध्यवर्ती सूत्र है--प्रयोग।
अनासक्ति एक महान् प्रयोग है। गीता का नवनीत है---अनासक्ति योग । क्या उसका स्वाध्याय या विवेचन करने वाला कर्म के क्षेत्र में अनासक्त बन जाता है ? प्रतिदिन पारायण करने वालों में भी अनासक्ति का अवतरण नहीं दिखाई देता । इसका हेतु है प्रयोग का अभाव ।
योगिराज कृष्ण ने कहा-मैं उदासीन की भांति आसीन हूं । कर्मों में आसक्त हूं । इसलिए वे कर्म मुझे बांध नही पाते ।
न च मा तानि कर्माणि निबध्नति धनंजय।
उदासिनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ।। ९ ।९ प्रयोग के बिना कोई मनुष्य उदासीन नहीं हो सकता। सामान्यत: हर मनुष्य प्रिय और अप्रिय संवेदनो में जीता है । उनसे ऊपर उठना साधना के बिना सम्भव नहीं। गीता में उदासीन या तटस्थ का अर्थ है आत्मवान् । आत्मवान् ही अनासक्त हो सकता है । उसे कर्म नहीं बांध पाते
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