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मूल का सिंचन धार्मिक : अधार्मिक
हमे प्रयोग करना होगा। आचार्य तुलसी ने इस सारी समस्या को ध्यान में रखकर ही अणुव्रत आंदोलन का प्रवर्तन किया। अणुव्रत का उद्देश्य है कि मनुष्य की संकल्प-शक्ति जागे । धर्म प्रयोगिक बने । धर्म कोरे उपदेश के साथ न रहे। कोरे उपदेश से न धर्म का भला होगा, न धार्मिक का भला होगा । आज तो स्थिति यह है कि एक धार्मिक और अधार्मिक के बीच कोई भेद रेखा ही दिखाई नही पड़ती। आज धार्मिक और नास्तिक के बीच कोई लक्ष्मण रेखा दिखाई नहीं पड़ती। जो कार्य एक अधार्मिक कर रही है, वही कार्य एक धार्मिक भी कर रहा है। जो भ्रष्टाचार, बेईमानी एक नास्तिक कर रहा है, वही आस्तिक भी कर रहा है। अगर कोई अन्तर है तो वह इतना ही है कि नास्तिक या अधार्मिक को सायंकाल कोई प्रार्थना करने की जरूरत नही होती । धार्मिक आदमी बेईमानी भी करता जाता है और साथ में प्रार्थना भी करता जाता है । वह प्रायश्चित्त या प्रार्थना बुराई छोडने के लिए नहीं करता बल्कि और अधिक करने के लिए करता है। प्रेक्षा ध्यान के द्वारा परिवर्तन
बात है बदलने की । अणुव्रत आंदोलन में एक नया प्रयोग और किया प्रेक्षा ध्यान का। हमने देखा कि आदमी बुराई करता है किन्तु केवल परिस्थितियो के कारण ही नहीं करता । ऐसा तो केवल मान लिया गया है कि जैसी परिस्थिति होती है, आदमी वैसा बन जाता है। जब हम गहराई में उतरकर देखते हैं तो इस सिद्धान्त में कोई सच्चाई नहीं लगती। मै मानता हूं कि परिस्थिति भी एक निमित्त बनती है,वातावरण भी एक निमित्त बनता है। हम निमित्त को तो पकड़ लेते हैं, किन्तु मूल बात को छोड़ देते हैं । मूल बात यह है कि हमारे व्यवहार और आचरण वैसे होते हैं, जैसे हमारे भीतर के रसायन होते हैं। आज की वैज्ञानिक खोजो से यह बात प्रमाणित हो चुकी है कि मनुष्य का व्यवहार और आचरण वैसा होता है, जैसा व्यक्ति का स्राव होता है । जैसा व्यक्ति का स्राव होता है, वैसा ही उसका आचरण होता है। भीतरी रसायनो में परिवर्तन
__ मैं आप लोगों से बहुत विश्वास के साथ कहना चाहता हूं कि चाहे हजार बार हमारे विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम मे परिवर्तन कर दिया जाए, कितने ही शिक्षा के आयोग स्थापित हो जाएं, कितने ही धर्म स्थानों के धर्मगुरु एकत्रित हो जाएं, कितने ही राजनैतिक मंच अनुशासन लाने का प्रयास करे, किन्तु जब तक हमारे रसायन नही बदलेंगे, तब तक कोई भी परिवर्तन सम्भव नही है । रसायनो
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