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जीव: स्वरूप और लक्षण
शुभ - अशुभ का अनुभव. ७. जीवन-मृत्यु का अनुभव ।
क्षायोपशमिक व्यक्तित्व के लक्षण हैं : १. जानने-देखने की क्षमता का अनुभव । २. अमूर्च्छा का अनुभव - आवेग - शून्यता, अभय, काम-वासना - मुक्ति और आनन्द का अनुभव । ३. सामर्थ्य का अनुभव । ४. संवेदन- मुक्ति का अनुभव ।
व्यक्तित्व की ये दोनों परतें हर व्यक्ति के मस्तिष्क में होती है । अपने चैतन्यमय स्वरूप के प्रति जागरूकता के क्षण में क्षायोपशमिक व्यक्तित्व की परत सक्रिय होती है। मूर्च्छा के क्षण में औदयिक व्यक्तित्व की परत सक्रिय होती है । इन दोनों के प्रभाव से दोहरा व्यक्तित्व बनता है । यह जीव का वास्तविक स्वरूप नहीं है, किन्तु अनावरण की अवस्था के विकास से पूर्व उसका यही रूप उपलब्ध होता है । चैतन्य का अनावरण होने पर यह दोहरा व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है, तभी उसका वास्तविक स्वरूप प्रकट हो जाता है । इसे क्षायिक व्यक्तित्व कहते हैं ।
सशरीर और अशरीर
जीव संसार में रहता है। वह शरीर में रहता है और उसका फैलाव भी शरीर जितना ही होता है, इसलिए उसे (जीव को) देह-परिमाण कहा गया है । वह न तो शरीर के किसी हिस्से में केन्द्रित है और न पूरे लोक में व्याप्त है, किन्तु वह पूरे शरीर (नाड़ी - संस्थान) में व्याप्त है । मुक्ति के प्रथम क्षण में वह अशरीर हो जाता है । उस अवस्था में भी वह पूरे लोक में व्याप्त नहीं होता, किन्तु जिस शरीर से मुक्त होता है उसी के त्रिभागहीन क्षेत्र में वह व्याप्त हो जाता है ।
यह अशरीर अवस्था जीव की सर्वथा पुद्गलक्त या अचैतन्य-वियुक्त अवस्था । इस अवस्था के उपलब्ध होने पर जीव फिर कभी पुद्गल से युक्त नहीं होता, उससे प्रभावित नहीं होता ।
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