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मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि
ही कहने के तरीके हैं । जितने तरीके है, उतने ही मतवाद हैं । मतवाद एक केन्द्र-बिन्दु है । उसके चारों ओर विवाद-संवाद, संघर्ष समन्वय, हिंसा और अहिंसा की परिक्रमा लगती है । एक से अनेक के सम्बन्ध जुड़ते है, सत्य या असत्य के प्रशन खड़े होने लगते है । बस, यही से विचारों का स्रोत दो धाराओं मे बह चलता हैं-अनेकान्त या सत् - एकान्त-दृष्टि- अहिंसा, असत्-एकान्त-दृष्टि--- हंसा |
कोई बात या कोई शब्द सही है या गलत, इसकी परख करने के लिए एक दृष्टि की अनेक धाराएं चाहिए । वक्ता ने जो शब्द कहा, तब वह किस अवस्था मे था ? उसके आस-पास की परिस्थितियां कैसी थी। उसका शब्द किस शब्दशक्ति से अन्वित था ? विवक्षा मे किसका प्राधान्य था ? उसका उद्देश्य क्या था ? वह किस साध्य को लिए चलता था ? उसकी अन्य निरुपण पद्धतियां कैसी थी ? तत्कालीन सामयिक स्थितियां कैसी थी ? आदि-आदि अनेक छोटे-बड़े बाट मिलकर एक-एक शब्द को सत्य की तराजू में तोलते थे ।
सत्य जितना उपादेय है उतना ही जटिल और छिपा हुआ है। उसे प्रकाश में लाने का एकमात्र साधन है-शब्द । उसके सहारे सत्य का आदान-प्रदान होता है । शब्द अपने आप मे सत्य या असत्य कुछ भी नही है । वक्ता की प्रवृति से वह सत्य या असत्य से जुड़ता है । 'रात' एक शब्द है, वह अपने आप मे सही या झूठ कुछ भी नही । वक्ता अगर रात को रात कहे तो वह शब्द सत्य है और अगर वह दिन को रात कहे तो वही शब्द असत्य हो जाता है । शब्द की ऐसी स्थिति है, तब कैसे कोई व्यक्ति केवल उसी के सहारे को सत्य को ग्रहण कर सकता है।
इसलिए भगवान महावीर ने बताया- “प्रत्येक धर्म (वस्त्वंश) को अपेक्षा से ग्रहण करो । सत्य सापेक्ष होता है । एक सत्यांश के साथ लगे या छिपे अनेक सत्यांशो को ठुकराकर कोई उसे पकड़ना चाहे तो वह सत्यांश भी उसके सामने असत्यांश बनकर आता है।"
दूसरो के प्रति ही नही उनके विचारो के प्रति भी अन्याय मत करो। अपने को समझने के साथ-साथ दूसरो को भी समझने की भी चेष्टा करो। यही है - अनेकान्तदृष्टि, यही है - अपेक्षावाद और इसी का नाम है- बौद्धिक अहिंसा । इसके विकास मे जैन का महत्वपूर्ण योगदान है ।
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