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मरणभोजकी भयंकरता।
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पुत्र मरे या पुत्री, पति मरे या पत्नी किन्तु तत्काल ही मोदक उड़ानेकी तैयारी होने लगती है। इसी विषय में एक सज्जनने लिखा है
कि "मरणभोजभोजियोंने सहानुभूतिको संखिया दे दिया, कृतज्ञताको · कौड़ीके मोल बेच दिया, समवेदनाकी भद्रताको भट्टीमें झोंक दिया,. . मुदॆके मालपर गीध और कुत्तोंकी तरह टूट पड़े, खूनसे सने सीरेको हड़पने लगे, लोहू मरी लपसी डकार गये, रक्तसे लथपथ रबड़ीको सबोड़ गये, कराहते हुये आत्मीयों के कन्दनको सुनने के लिये कान फोड़, आगापीछा मूल चटोरी जिहाके चाकर बन गये।" क्या यही दया और अहिंसाका स्वरूप है ? क्या यही आर्य सभ्यताकी निशानी है ? भोजनमक्त नरपिशाचो ! तनिक अपनी हियेकी आंखें खोलो और इस पाशक्तापर विचार करो !
जा मरणभोजके दृश्यको तो एकवार देखिये:-एक तरफ कफन खरीदा जारहा है तो दूसरी ओर मरणभोजकी तिथि तय की जारही है, इधर जनाजा निकल रहा है तो उधर पकवान उड़ानेकी प्रतीक्षा होरही है, इधर चितापर मुर्दा जा रहा है तो उधर निमंत्र. णकी फहरिश्त बनाई जारही है, इघर विधवा सिर और छाती कूट कर हाय हाय कर रही है तो उधर लड्डुओंकी तैयारी होरही है, इधर पितृहीन बालक आहें भर रहे हैं तो उधर पंच लोग नुक्तेकी चर्चा में तल्लीन हैं, इधर घरके लोग आंसू बहा रहे हैं और जोर जोरसे चिल्ला रहे हैं तो उधर हृदयहीन स्त्री पुरुष लड्डू गटक रहे हैं । यह कैसा दयनीय एवं निष्ठुरतापूर्ण कृत्य है, जिसे देखकर दया तो किसी भन्धेरे कोने में खड़ी हुई रोती होगी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com