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मरणमोज ।
कक मरने या बाल ( मिथ्यादृष्टि ) सन्याससे मरने पर तत्काल ही शुद्धि होजाती है।
किन्तु इस आर्षवाक्यके विरुद्ध सोमसेन त्रिवर्णाचारमें गौदा. नादि तथा भोजन करानेपर शुद्धि मानी गई है। ऐसी स्थितिमें प्रायश्चित्त समुच्चय ग्रंथको ही प्रमाण मानना बुद्धिमानी है। कारण कि " सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् ।" अर्थात् सामान्य शास्त्रकी अपेक्षा विशेष अधिक प्रामाणिक होता है। इसलिये शिथिलाचारी मिथ्याप्रचारी भट्टारक सोमसेनकृत त्रिवर्णाचारकी अपेक्षा प्रायश्चित समुच्चय अधिक प्रामाणिक शास्त्र है । और फिर त्रिवर्णाचार तो कोई शास्त्र भी नहीं है।
दुसरी बात यह है कि हम पहले बता चुके हैं कि जलपातादिसे मरनेपर तो तत्काल ही शुद्धि होजाती है और वैसे सामान्य मरण होनेपर अमुक दिन बाद स्वयं शुद्धि हो जाती है। यथा
ब्राह्मणक्षत्रियविद्शूद्रा दिनैः शुद्धयन्ति पंचभिः । दश द्वादशभिः पक्षाद्यथासंख्यप्रयोगतः ॥ १५३ ॥
-प्रायश्चित्त संग्रह चूलिका । अर्थात्-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किसी स्वजनके मर जानेपर क्रमशः पांच, दस, बारह और पन्द्रह दिनके वीतनेपर स्वयमेव शुद्ध होजाते हैं। इससे वह स्पष्ट सिद्ध होजाता है कि जैनोंकी पातक शुद्धि १२ दिन बीत जानेपर स्वतः होजाती है। इसलिये मरणभोजसे शुद्धि होना मानना एक मात्र मिथ्यात्व है। मरणके बादकी पातकशुदि तो कालशुद्धि है।
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