Book Title: Maran Bhoj
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Singhai Moolchand Jain Munim

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Page 116
________________ मरणभोज। एक दिना जेवनमें, अमर न होय । मृतक भोज पा बितवत, जीवन कोय ? करिल्यो माज प्रतिज्ञा "कबहुँ न जाँय । मृतक भोजके भोजन, कबहुँ न खाँय ॥" 'निरबळ" की यह बिनती, लेबहु मान । सुख सम्पति सन्तति, पावहु यश मान ॥ मरणभोजकी भट्टी। [रचयिता-कविरत्न पं० गुणभद्र जैन] लिखदे सत्वर करुण लेखनी मरण कहानी, सुन जिसको पाषाण हृदय हो पानी पानी; जबतक यह दुष्प्रथा रहेगी जीवित भूपर, भावेंगे संकट अनेक हा ! अपने ऊपर; मरणभोजकी ममिमें, स्वाहा कितने होगये । पाठक ! माप निहारिये, होते हैं कितने नये ॥ १॥ बनकर विष यह प्रथा जातिकी नसमें व्यापी, हुये सभी इसके शिकार सजन या पापी; घरमें मिलता नहीं पेटभर भी हो खाना, पर पंचोंको तो अवश्य हा ! पड़े खिलाना; निर्धन करती जारही, आज जातिको यह प्रथा। दिल दहलादे भापका, दुखप्रद है इसकी कथा ॥२॥ घर उजाड़ बन रहे, आज कितनोंके इससे, अंतरका दुख कहें पासमें जाकर किससे; . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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