________________
७२]
मरणभोज । दरी एवं ब्रह्मचारी आदि गृहत्यागियों को भोजन कराते हैं । इसे भी प्रायश्चित्तका एक अंग मानते हैं। इसमें भी कोई पंचायती बन्धन नहीं है। असमर्थ लोग २-४ रुपया खर्च करके मात्र अभिषेक ही करके शुद्ध हो जाते हैं । मरणभोज करना मावश्यक नहीं है ।
८-१० सुमेरुचन्दजी जैन दिवाकर-शास्त्री, न्यायतीर्थ, बी० ए० एल एल० बी० सिवनी- मैं वर्तमान परिस्थिति तथा मर्थ संकटको देखते हुए इस प्रथामें उचित संशोधन चाहता हूं। हमारे यहां पंचायती तौर पर ४० वर्ष तककी मृत्युकी जीमनवार बन्द है । इससे मैं भी सहमत हूं। यदि व्यक्ति असमर्थ है तो समाजको उसे बाध्य न करके उचित छूट देना चाहिये । बृहद भोजके स्थानमें बचा हुमा द्रव्य यदि धार्मिक कार्यमें व्यय किया जाय तो समीचीन बात होगी। हमारे श्रीमानोंको भादर्श उपस्थित करना चाहिये।
९-५० मुन्नालालजी काव्यतीर्थ इन्दौर-मरणभोज शास्त्रसम्मत हर्गिज नहीं । द्रव्यवानोंको अपना द्रव्य इसके बदले किसी शुभ कार्य में लगाना श्रेष्ठ है ।
१०-५० किशोरीलालजी शास्त्री-स० सम्पादक जैनगजट पपौरा-मैं मृत्युभोनके विपक्षमें हूं। मैंने स्वयं अपनी वहू के मरनेपर मृत्युभोज नहीं किया। यह बड़ी दुखद प्रथा है।
११-दर्शनशास्त्री पं० आनन्दीलालजी न्यायतीर्थ जयपुर-जैन समाजमें मृत्युभोजकी प्रथा बहुत ही भयंकर है। धर्म और जैनाचारसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रथाका
शीघ्र ही समूळ नाश होना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com