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मरणभोज। भान्दोलन हुभा है । परिणामस्वरूप अन्य कई लोगोंने मरणभोज नहीं किये । जैन मित्र और वीमें पण्डित गोरेलालजी जैनने समाचार छाया है कि " संघपा नि० पं. मोतीलालजीकी पितामहीका ७५ वर्षकी आयुमें स्वर्गवास होया । लोगोंके भाग्रहसे रिवाजानुसार मरणभोजका विचार हुआ। मगर मैंने बहुत समझाया कि अपने गरीब प्रांत (बुन्देलखण्ड ) में यह घातक प्रथा मिटा देनी चाहिये । तब आपने पं० परमेष्ठीदासजी का अनुकरण करते हुये मरणभोज बन्द कर दिया और गोलापूर्व जैन समाजमें इस घातक प्रथाको बन्द करने का सर्व प्रथम श्रेय आपने ही लिया । अब आप भानी पितामहीके स्मरणार्थ एक पुस्तक प्रगट करनेवाले हैं।"
जैन समाजके प्रखरसुबारक रुदैनी नि० पन्नालालजी जैन घिरोरने माने एक पत्र लिखा है कि "आपके समान ही एक मामका मेरे ऊपर अटक गया था। मेरे पिताजीका ७० वर्षकी भायुमें स्वर्गवास होगया। यहांकी समाज मरणभोजके लिये भाग्रह करती रही, मगर मैंने भापके साहस और आदर्शका अनुकरण करके मरणभोज नहीं किया।"
__इन घटनाओं के उल्लेख करनेका तात्पर्य यह है कि यदि कोई साहसपूर्वक अपने घरसे सुधार करे तो उसका अनुकरण करनेवाले भी बहुत होजाते हैं । और फिर उनके भी अनुकरण करनेघाले तैयार होजाते हैं । इस प्रकार धीरे धीरे कुरूढ़ियोंका नाश होता जाताहै । मरणभोजको बंद करनेके लिये भी स्वयं नमूना बननेकी आवश्यक्ता है। मरणभोजकी घातक प्रथाको बन्द करने के लिये प्रत्येक जगहकी
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