Book Title: Maran Bhoj
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Singhai Moolchand Jain Munim

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Page 107
________________ कविता-संग्रह। [ ९३ बोले पंच तुम्हारे पतिका नाम बड़ा है। किया उन्होंने यहां आजतक काम बड़ा है ॥ बुद्धिमान थे और जातिमें नाम कमाया। अपना मस्तक कभी नहीं नीचा करवाया ॥ गर उनका होगा नहीं नुक्ता वसी शानसे । कैसे अपनी जातिमें बैठोगी भभिमानसे ॥ (४) विधवाको देदेकर वाढ़ें हा नुक्ता करवाया। जेवर वेचाया मकान उसका गिरवी रखवाया ॥ पांच पांच या चार वरसके बालक भी पालेगी। उधर जातिद्वारा आये संकटको भी टालेगी । ऐसी दुष्ट प्रथामई जाति तुझे धिक्कार है। ___ जहां पेटको होरहा इतना अत्याचार है ।। (५) यह तो थी असमर्थ समर्थोकी अब सुनो कहानी । जिसको सुनकर भर आयेगा निज आंखोंमें पानी ॥ बीस वरसका पुत्र सेठजीका था गौरवशाली। .. जिसे निरख सह वधू सेठजीको छाई हरियाली ॥ .. कालचक्रके चक्रमें हुवा अधिक बीमार था । वचनेका उसका तनिक रहा नहीं मासार था ॥ (६) एक वही था उनके वह इकलौता बेटा । हाय अचानक उसे कालने मान समेटा ॥ नव विवाहिता वधू विलखती छोड़ सिधारा । चला सेठकी छातीपर क्या काल दुधारा ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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