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मरणमोजके प्रान्तीय रिवाज । (१३ ३ दिन ) भी होता है । इतना ही नहीं किन्तु कहीं कहीं तो ४-५ दिन तक मरणभोज दिया जाता था। इस प्रकार मृत व्यक्तिके घरकी बरबादी कर दी जाती है । सूरतमें भी ३-४ दिन तक जीमनेका रिवाज़ था, मगर मब धीरे धीरे वह बन्द हो गया है। और भब तो मात्र एक ही दिन मरणभोज देनेकी प्रथा रही है। वह भी भव गमग मिट गई है। अब यहांके लोग बारहवां तेरहवां मादि कुछ नहीं करते। किन्तु कोई कोई पूजा पाठ कराके उसके बहानेसे धर्ममोज देते हैं, जो लगभग मरणभोजका ही रूपान्तर है। किन्तु गुजरातके ग्रामोंमें तो ममी भी मरणभोजकी प्रथा ज्योंकी त्यों चालू है।
काठियावाड़ प्रांतमें-भी गुजरातकी भांति ही छाती कूटने, राजिया गाने, और बारहवां तथा तेरहवां करने का रिवाज है। वहां भी जैनाचारहीन क्रियाकाण्ड किये जाते हैं और निःसंकोच मरणभोज किया जाता है।
___ इस तरह मरणभोजके प्रान्तीय और जातीय रिवाज़ विविध प्रकारके पाये जाते हैं। किसीमें मिथ्यात्वका असर है तो कोई महामिथ्यात्वरूप है और कोई अत्याचार, दबाव, लज्जा, या जातिभयके कारण किया जाता है तथा किसीमें मात्र गतानुगतिकता या वाहवाही ही कारण होती है। पूर्व लिखित प्रकरणोंसे पाठक भली भांति समझ गये होंगे कि जैन समाजमें मरणभोजकी राक्षसी प्रथाने घर करके उसे कितना बर्बाद कर दिया है । फिर भी हमारी जातीय पंचायतें उसे ममी भी जड़मलसे नाश करनेका साहस नहीं करती।
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