Book Title: Maran Bhoj
Author(s): Parmeshthidas Jain
Publisher: Singhai Moolchand Jain Munim

View full book text
Previous | Next

Page 66
________________ amamaramanaamaaraamam परणभोज। मह प्रथा किसी न किसी रूपमें अनेक प्रांत और वहां की जातियों में पाई जाती है। नागपुरके एक सज्जनने लिखा है कि इस प्रान्तमें १बघेरवाल जातिमें मरणभोज करना अत्यावश्यक न होनेपर भी कई लोग गृहशुद्धिके लिये करते हैं । २-खण्डेलवाल जातिमें तो मरणभोजकी प्रथा खूब जोरोंसे प्रचलित है । ३- परवार जातिमें भी इस प्रथाका अर्धरूप पाया जाता है। ४-पद्मावती पुरवाल जातिमें यह प्रथा अभीतक चालू है । प्रायः वे लोग १३ वें दिन भोजन कराके तेरहवीं करते हैं। ५-सैतवाल जातिमें यह प्रथा पद्मावती पोरवालोंकी भांति ही प्रचलित है। खंडेलबालोंमें ला रतनलालजी बाकलीवालने अपनी माताका मरणभोज न करके १२५) दान किये । यह उनका सर्व प्रथम साहस है। एक न्यायतीर्थजीने ग्रामानुसार अपना अनुभव लिखकर भेजा है कि १-विलसी (बदायूँ ) में समझाने बुझानेपर मरणभोन बंदीका प्रस्ताव तो कराया गया, फिर भी वहांके कई जैन तेरहवें दिन कमसेकम १३ ब्राह्मणों को भोजन करा देना की भी भावश्यक समझते हैं । २-खुरई-(सागर) में न्यायाचार्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी के प्रयत्नसे बालक और युवकोंका मरणभोजसे बंद होगया है। इसका अर्थ यह है कि जनसमाजके सर्वमान्य पूज्य . बिद्वान न्यायाचार्यजी भी मरणभोनको धर्मसंगत, भावश्यक, शुद्धिः जादू या श्रावककी क्रिया नहीं मानते । भन्यथा वे अमुक आयुके स्त्री-पुरुषोंका मरणभोज केसे बंद कराते ! इस लिये जब युवकोंके । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122