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मरणभोजके प्रान्तीय रिवाज। [५५ यह मानवताका लीलाम ? दैवयोगसे वहां एक जैन साधुका चातुर्मास हुमा। और उनने उपदेश देकर इस घृणित प्रथाको बंद कराया। इसे वंद हुये करीब १० वर्ष हुये हैं। किन्तु उससे पहले तो वहांके जैन लोग उसे भी अत्यन्त आवश्यक क्रिया मानते थे और उसे छोड़नेमें धर्म कर्मका नाश हुआ मानते थे। यही दशा मरणभोजके सम्बंध है। अब वहां तो मरणभोज ( तेरई) भी कतई बंद है। हां, रावलपिंडी छावनीमें अभी भी मरणभोज प्रचलित है।
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दमोह-अभी भी कई रूढ़िचुस्त लोग मरणभोज नहीं छोड़ना चाहते। हां, कुछ सुधार प्रेमियोंने इस प्रथाको हलका कर दिया है।
इटारसी-में ४० वर्षसे कम आयुके मृत व्यक्तिकी तेई नहीं होती है। शेषकी की जाती है ।
इसी प्रकार दूसरे प्रांतोंमें भी अनेक प्रकारके रिवाज हैं। किसी भी प्रांतके जैनी इस कलंक प्रथासे नहीं बचे। फिर भी अब कई बड़े नगरोंमें और अग्रवाल जैन आदि कुछ जातियोंमें मरणमोजकी प्रथा कतई बन्द होगई है। कई जगह ३०-३५४० वर्षकी भवधि रखी गई है। वह भी आन्दोलन चालू रहनेपर बिलकुल मिट जायगी। मरणभोजके नामपर धर्मकी दुहाई देनेवालोंसे मैं पूछता हूं कि क्या इन लोगोंको वे धर्मक्रियाहीन मानते हैं ? सच्चा सम्यत्ती और सच्च। जैन तो वह है जो स्वयं मरणभोज नहीं करता और दूसरों को इस पाप कर्मसे रोकता है।
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