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मरणमोज ।
कुछ त्रिवर्णाचारी पण्डित जैसे मरणभोजको आवश्यक क्रिया बताते हैं वैसे लानको भी धर्मका आवश्यक अंग और समदत्ति कहते हैं। इस प्रकार आर्षाज्ञाका विचार न करके केवल रूढिको ही धर्म मान लेना कितना भयंकर अज्ञान है ! ब्राह्मणों और कुछ भोजनभट्ट भट्टारकोंकी कसे जैन समाजमें मरणभोज ही नहीं; किन्तु श्राद्ध, तर्पण, गौदान, पीपल पूना, पिण्डदान और ऐसी ही अनेक मिथ्या मान्यतायें घुस गई हैं । और वे सब त्रिवर्णाचारादि रचकर धर्माज्ञाके रूपमें सामने रखीगई हैं। उन्हींमें से मरणभोज और मरणोपक्षमें लान बांटना भी है । लेकिन सचमुचमें लान या मरणभोज श्राद्धका रूपान्तर है जोकि जैनशास्त्रानुसार मिथ्यात्व माना गया है।
मैं मरणभोज और लानको श्राद्धका रूपान्तर इसलिये कह रहा हू कि वह मृत व्यक्तिके उद्देश्यसे दिया जाता है जो कि मरणमोजिया पण्डितोंके कथनानुसार समदत्ति-दान कहा जाता है। ऐसे दानका निषेध पं० भाशाधर जीने सागारधर्मामृत अध्याय ५ श्लोक ५३की टीकाम किया है। उनने लिखा है कि
" श्राद्ध मृतपित्राद्युद्देशेन दानम् ।" अर्थात्-मृत पितादिके उद्देश्यसे दान करना श्राद्ध है और वह " न दद्यात्" नहीं देना चाहिये। उनने ऐसे श्राद्धको (सुदृग्दुहि श्राद्धादौ) सम्यक्तका घातक बताया है। इसलिये लानके नामपर बर्तन बांटना या समदत्तिके नामपर मरणभोज देना एक प्रकारका श्राद्ध है और सम्यक्तका घातक होनेसे त्याज्य है।
यहां पर कोई यह कह सकता है कि जब मरणोपलक्षमें वर्त
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