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मरणभोज ।
जैन समाजका यह दुर्भाग्य है कि कुछ दुराग्रही लोगोंकी कृपासे यहां मरणभोज तथा लान आदिका दौरदौरा है और उसे समदत्ति दान कहकर धार्मिकताका चोला पहनाया जाता है । किन्तु उन्हें इसका विचार ही नहीं कि वह धार्मिकता किस कामकी जिससे सैकड़ों घर बर्बाद होजांय और लोग जीवनभर चिन्ताकी चितामें जलते रहें । सहृदयता से विचारिये कि मरणमोज और लान समदत्ति है या जीवनदत्ति ?
कुछ लोग मरणभोज और कानको " पात्रदति " भी कहते हैं । किन्तु यह भी सरासर मूर्खता है । कारण कि शास्त्रोंमें पात्र - दान करना पुण्य और सद्भाग्यका विषय बताया है । ऐसी स्थिति में यदि किसीका पुत्र या पति मर जावे तो क्या उसकी माता और पत्नीको पुण्योदय या सौभाग्यका विषय मानना चाहिये ? क्योंकि उसे पात्रदतिका पुण्यावसर मिला है ! यदि नहीं तो मरणभोज और लानको पात्रदत्ति कहनेवाले अपने दुराग्रहको क्यों नहीं छोड़ देते ?
पात्रदचि तो वह है जिसमें दाता पात्र अपात्र कुपात्र की परीक्षा करे और सत्पात्रको ही दान दे ! किन्तु लान या मरणभोज में तो पात्रादिका कोई विचार नहीं होता। वह तो जैन और जैनेतर सभी व्यवहारी जनोंको दिया जाता है । इसलिये भी इसे पात्रदत्ति कहना भयंकर भूल है । दूसरी बात यह है कि लान और मरणभोजमें शामिल होनेवाले जैन कोई भिक्षुक तो हैं नहीं कि उन्हें दान दिया जाय । यह तो अदले बदलेका व्यवहार चला आरहा है। और जब यह आज समाज के लिये घातक सिद्ध होरहा है तो इसे सहर्ष छोड़
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