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मरणभोज ।
बारीकियोंको उतना नहीं समझती जितना बाहरी आचार-विचा-रोंको। इसीलिए कहा गया है कि "गतानुगतिको लोकः न लोकः पारमार्थिकः । "
इस विषय में एक बात और लिखने से रह गई । मैं एक देहात में था । वहां तड़बन्दी थी । कूटनीतिज्ञ मुखियोंकी कृपासे वहां एक ही कुटुम्बके दो घर दो तड़ोंमें विभक्त हो रहे थे । दैव1 योगसे एक घर में एक व्यक्तिकी मृत्यु होगईं और नियमानुसार उसे तेरहीं करनी पड़ी; परन्तु चूंकि दूसरी तड़वाला घर उस मृत्युभोज में शामिल न होसका, मतएव वह शुद्ध न होसका - उसका - सूतक ( पातक ? ) न उतरा और तब उसे लाचार होकर जुदा मृतक - भोज देना पड़ा | बहुत समझाने पर भी पंच-सरदार न माने । यह बात उनकी समझमें ही न आई कि एक कुल - गोत्रवाला वह दूसरा घर विना श्राद्ध किये कैसे शुद्ध हो सकता ! सो कहीं कहीं एकके मरनेपर दो दो तीन तीन तक श्राद्ध करने पड़ते हैं । बहुत से गांवोंमें यह हाल है कि यदि कोई मृतश्राद्ध न करे, बिरादरीवालों, ' लकड़ी ' देनेवालों और कमीनोंको भोजन न दे, तो उसे सार्वजनिक कुओंपर पानी नहीं भरने देते हैं, वह एक तरह से अवश्य होजाता है ।
आमतौर से यह भी रिवाज़ है कि जिसके यहां मृत्यु होजाती है, उस घर के लोग तेरहीं होजाने तक मंदिर नहीं जाते हैं । मृत्युमोजके दिन भोजनोपरांत घर के मुखियाको पंचजन पगड़ी बांधकर जिनदर्शनको लिवा जाते हैं, और इसके बाद उसे मंदिर जानेकी
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