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मरणभोज। सबसे अधिक दुःखकी बात तो यह है कि मरणभोजकी करुणताको जानते हुये भी आज कितने ही भोजनमट्ट, पेटाएं और धर्मके ठेकेदार बननेव,ले हृदयहीन व्यक्ति इस निर्दयतापूर्ण मरणभोजकी पुष्टि करते हैं। उनके पास न तो कोई धर्मशास्त्रोंका प्रमाण है और न कोई बुद्धिगम्य तर्क । फिर भी वे अपने हठवादको पुष्ट करते रहते हैं। यदि उनके पास कोई प्रमाण है भी तो एक मात्र त्रिवर्णाचार हो सकता है। क्या कोई मरणभोज समर्थक विद्वान किसी मार्षग्रन्थमें मरणमोजका प्रमाण बता सकते हैं ?
जिस त्रिवर्णाचारका प्रमाण दिया जा सकता है वह ग्रन्थ शिथिलाचारका पोषक है, उसमें योनिपूजा, पीपलपूजा, श्राद्ध, तर्पण
और ऐसी ही अनेक मिथ्यात्व पोषक बातों का विधान है, जो जैनत्वसम्यक्तको नष्ट करनेवाली हैं। उसमें तो तीसरे दिनसे लगाकर बारहवें दिन तक बराबर भोजन कराने का विधान किया गया है
और हिन्दू शास्त्रों के आधारसे श्रद्ध, तर्पण, पिण्डदानका पूरा२ वर्णन करके उन्हें जैनोंके लिये विधेय बताया है। तात्पर्य यह है कि भट्टा. रक सोमसेनके त्रिवर्णाचारमें जैनियों का जैनत्व नष्ट करनेवाले भनेक विधि विध न भरे पड़े हैं। उसीमें मरणभोज भी एक है। इसके अतिरिक्त कोई भी प्राचीन या अर्वाचीन जैन शास्त्र मरणभोजका समर्थन नहीं करता।
प्रत्युत पण्डितप्रवर सदासुखदासजीने रत्नकरण्डश्रावकाचार श्लोक २२ की टीकामें मरणभोज, श्राद्ध, तर्पण आदिको लोकमूढता बताया है। . .
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