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शास्त्रीय शुद्धि ।
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त्रिवर्णाचार तथा ब्रह्मसूरि कृत प्रतिष्ठातिलक में एक ही तरहके अक्षरशः नकल किये हुए कुछ श्लोक ऐसे भी हैं जिनका तात्पर्य यह है कि यदि दुष्ट तिथि, दुष्ट नक्षत्र या दुष्ट वारमें अथवा दुर्भिक्ष, शस्त्र, अभिपात या जलपात आदिसे मरण हो तो कुटुंबीजनोंको प्रायश्चित्त ( उद्दोषपरिहारार्थी) के हेतु से अन्नदानादि देना चाहिये । इससे यह ज्ञात होता है कि पहले मरणभोजकी प्रथा प्रायश्चित्तके रूप में प्रारम्भ हुई थी । उस समय मात्र पांच युगको अन्नदान देनेकी (पश्चानां मिथुनानां तु अन्नदानं) विधि थी । फिर भी यही धीरे धीरे बढ़कर सैकड़ों हजारोंको लड्डू खिलाने के रूपमें परिणत होगई । और अब तो सभी प्रकार के मरगोपलक्ष में बृहत् भोज किया जाता है तथा उसमें हजारों रुपया खर्च किये जाते हैं । जबतक यह प्रथा बन्द न होगी तबतक न तो समाजकी दयनीय दशा सुधर सकती है और न समाज अमानुषिकता के कलंक से ही मुक्त हो सकती है ।
शास्त्रीय शुद्धि |
हिन्दू स्मृतियोंकी नकल करके सोमसेन भट्टारकने मरणशुद्धिके लिये भोजन कराना आवश्यक बताया है, तब आचार्य गुरुदासने प्रायश्चित्तसंग्रह चूलिका में लिखा है कि:
जलानलप्रवेशेन भृगुपाता च्छिशावपि ।
बालसन्यासत: प्रेते सद्यः शौचं गृहिव्रते ॥ १५२॥
अर्थात् - जलमें डूबने, अग्निमें जलने, पर्वत से गिरने, बाल
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