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मरणभोज। मृतात्मा फिर उसके उपभोगके लिये न तो वापिस आता है और न राखमें पड़ा रहता है, न मरण स्थानपर मंडराता रहता है। इसलिये तमाम मिथ्या क्रियाओंका त्याग करो। ५९ में छन्दमें परिजनोंके जीमनेकी रूढ़ि बनाकर उसे भी निंद्य कहा है।
किन्तु हम आज देखते हैं कि जैनोंमें प्रायः तमाम मिथ्या क्रियायें प्रचलित हैं। मरणभोनके लिये शक्ति न होनेपर भी अनाथ विधवाओंके गहने बेचे जाते हैं, उनके मकान बेच दिये जाते हैं, सारी सम्पत्ति स्वाहा करदी जाती है और नुक्ता किया जाता है। ऐसा न करनेपर उसकी निन्दा होती है और कहीं कहीं तो मरणभोज न करनेवालोंको जातिबहिष्कृत भी कर दिया जाता है। यह सब बातें आपको आगे करुणाजनक घटनाओं के प्रकरणमें देखमेको मिलेगी।
मरणभोजकी भयंकरता। मरणभोजकी राक्षसी प्रथाके कारण अनेक विधवायें बर्बाद होगई, अनेक बच्चे दाने दानेको तरस रहे हैं, अनेक ऊंचे घर कर्ज करके मिट्टीमें मिल गये हैं। इस भयंकर प्रथाकी पुष्टि के लिये कई गृहस्थोंको घर जायदाद वेचना पड़ी, गहने वर्तन बेचना पड़े और अपना जीवनतक बेच देना पड़ा, किन्तु निर्दयी पंचोंने जीवन लेकर भी जीमन नहीं छोड़ा।
निर्दयताके साथ ही साथ यह कितनी भयंकर असभ्यता है कि माता मरे या पिता, भाई मरे या भौजाई, काका मरे या काकी,
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