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मरणमोजका
उचित है।
यह
मरणमोजकी उत्पत्ति। मत सप्रमाण गजटमें प्रगट करें, ताकि शंका निवारण हो।" किन्तु इस आवश्यक प्रश्नका उत्तर देनेका साहस न तो गजटके सम्पादकजी ही कर सके और न कोई दूसरा। इसका भी कारण स्पष्ट है कि कहीं भी मरणमोजकी शास्त्रसम्मतता नहीं मिल सकती।
तात्पर्य यह है कि मरणमोजका विधान न तो जैन शास्त्रोंमें है और न जैनाचारकी दृष्टिसे ही यह कार्य उचित है। जैनोंमें तो इसका प्रचार मात्र अपने पड़ौसी हिन्दुओंसे हुभा है, उन्हींका यह अनुकरण है। यही कारण है कि आजसे सौ-पचास वर्ष पूर्व प्रायः सारी जैन समाजमें मरणभोजके साथ ही उसकी मागे पीछेकी तमाम क्रियायें हिन्दू क्रियाभोंके समान ही कीजाती थीं, जिनका निषेध करते हुये पं० किशनसिंहजीने अपने क्रियाकोषमें लिखा है कि:
दगध क्रिया पाछे परिवार, पाणी देय सवै तिहिवार । दिन तीजेसो तीयो करै, भात सराई मसाण हूँ धरै ॥ ५७॥ चांदी सात तवा परि डारि, चंदन टिपकी दे नरनारि । पाणी दे पाथर षडकाय, मिनदसण करिकै घरि आय ॥ ५८॥ सब परियण जीमत तिहिंवार, वांवां करते गांस निकार । सांज लगै तिनि ढांक रिषाय, गाय बछ। कुं देय षुवाय ।। ५९ ॥ ए सब क्रिया जैन मत मांहिं, निंद सकल भाषे सक नाहिं।
इस प्रकार मागे भी तमाम मिथ्या क्रियाओं का वर्णन करके जैनोंको उनके त्यागनेका उपदेश दिया है। और स्पष्ट लिखा है कि एक दो या तीन समयमें तो जीव अन्य भवमें पहुंच जाता है, फिर व्यर्थ ही क्यों आडम्बर रचते हो ? उसके निमित्तसे ग्रास (अछूतापिण्ड) निकालना, पानी देना भादि सब मिथ्यात्व है। कारण कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com