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तर वंश का राजा राज्य करता था। पुराने विजेता अधिकतर विजितवंश को सर्वथा अधिकार-च्युत न करते थे। यदि राजा ने अधीनता स्वीकार कर ली और कर देना स्वीकार किया तो यह पर्याप्त समझा जाता था। विग्रहराज के शिलालेख मे केवल इतना ही लिखा है कि उसने आशिका के ग्रहण से श्रान्त अपने यश को दिल्ली अर्थात् दिल्ली में विश्राम दिया। इसका यह मतलव हो सकता है कि दिल्ली के राजा ने विग्रहराज की अधीनता स्वीकार की। यह शिलालेख हमे यह मानने के लिये विवश नहीं करता कि चौहान-सम्राट् ने दिल्ली के राजवंश
और राज्य को ही समाप्त कर दिया। श्री जिनपाल उपाध्याय का कथन सर्वथा स्पष्ट है, और उसके आधार पर हम निस्सकोच कह सकते है कि सम्वत् १२२३ में योगिनीपुर अर्थात् दिल्ली में राजा मदनपाल का राज्य था। वे सर्वथा स्वतन्त्र थे या पराधीन- यह दूसरा विपय है और इसका निर्णय अन्यत्र उपलभ्य ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर किया जा सकता है।
इस सुन्दर पुस्तिका को लिखने के लिये अगरचन्दजी एवं भंवरलालजी दोनों ही वधाई एवं धन्यवाद के पात्र है। भगवान से प्रार्थना है कि वे इसी तरह चिरकाल तक नवीन-नवीन एवं शोधपूर्ण पुस्तकों द्वारा हिन्दी साहित्य की वृद्धि करते रहे।
बीकानेर चैत्र कृ. ३,१९९६
दशरथ शर्मा