Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 53
________________ १४ א मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमुरि पासत्थाइ भयं जस्ल-माणसे नत्थि सव्वहा | सव्वविज्जाय-तत्तन्तु समाइगुणसंजुओ ॥ ७ ॥ ~^^^omowan पार्श्वस्थादि भयं यस्य मानसे नास्ति सर्वथा । सर्वविद्यातत्त्वज्ञ. क्षमादिगुणसंयुक्त ॥ ७ ॥ अर्थ-पतिन आचार वाले पामस्थों का भय जिनके मन में सर्व्वथा नहीं है। जो मत्र विद्यातत्त्वों के जानकार होते हैं। जो क्ष्मादि गुणों 'सयुक्त होते हैं। य पुरओ जस्स नन्नस्स जओ होज विचारणो । भवे जुगप्पहाणो सो सव्वमोक्खकरो गुरु ॥ ८ ॥ पुरतो यस्य नान्यस्य जयो भवेद्र विवादितः । भवेद् युगप्रधान स सर्वसौख्यकरो गुरुः ॥ ८ ॥ अर्थ - जिनके सन्मुख किसी विवाद का जय नहीं हो सक्ता वे युग ने प्रधान गुरु सब सुख को करने वाले होते है । वारसंगाणि संघो विवोत्तं पासायामिव संभाव्य तं धरे पवयणं फुडं | सया य सो ॥ ६ ॥ प्रवचनं स्फुटम् । द्वादशाङ्गानि संघोपि उक्तं प्रासादमिव स्तम्भ इव तद्र्धरति सदा च सः ॥६॥ अर्थ – द्वाडगांगी और नघ को सूत्रों ने पट रूप से प्रवचन कहा है । ---- उनी महल में खने के जैसे हमेशा वही गुरु रहा करता है।

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