Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 85
________________ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि जो परवेण खो णियदवसहावभावणालीणो। सो तेण वीदरागो भवियो भवसागरं तरइ॥४०॥ पालय वंभचरणं णिम्मलणीरागमणसंमाहीए । सो बयइ वंभलोयं अणंतसहठाणगं भणियं ॥४१॥ संपयवंभवयावो (भासुरदेविज्जवरविमाणं च । पावइमणुन्नभोयं तत्थ चुया णिचुयं जंति ॥ ४२ ॥ एवं पवयणसारं वंभवयं अमियपाणसारिच्छं । . जो चरइ भन्यजीवो संसारविसं निवारेइ ॥४३॥ भावं जिणपन्नतं णिस्संकिय जोहु सहहइ जीवो। सो हवइ सम्मट्ठिी अमियसुहं पावए विउलं ॥४४॥ एसो पवयणसारो सिरिजिणवरगणहरहि पन्नतो। गुरुजिणदत्तपसाया लिहियो कप्यूरमल्लेहि ॥४५॥ संपइ गणाहिपवरो णिम्मलगुणरयणरोहणसरिच्छो । सिरिजिणचंदमुर्णिदो दीवग इव दीवए लोए ॥ ४६॥ ॥ इति श्रीब्रह्मचर्यपरिकरण सम्मतं ।। -ookogoo

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