Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 89
________________ AmAmrunana ६८ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रभूरि मणिधारीती का ही दिया है अतः बात होता है कि नाम साम्य की भ्रान्ति से वे बाल संवंगरंगशालाकत्ता श्रीजिनचन्द्रसूरिजी के साथ लगा दी है। इन दोनों आचार्यों के समय में लगभग १०० वर्षों का अन्तर है. परन्तु दोनों का एक ही नाम होने के कारण यह भ्रान्ति हो जाना सम्भव है। इन प्रमाणों से यह निर्विवाद सिद्ध है कि इस जाति से प्रतिवोधक खरतर गच्चार्य श्रीजिनचन्द्रसरि थे। इस नाति वालों की एक प्रतिज्ञा नं. ४-५ के अवतरण से इस जातिवालों की एक महत्त्वपूर्ण प्रतिमा का पता लगता है। वह प्रतिता यह थी कि "हम या तो श्रीविनेश्वर भगवान को या श्रीजिनचन्द्रसूरि (एवं उनके अनुयायी साधुसंध को ही वन्दन करेंगे दूसरों को नहीं इससे उनके मन्यन्त्र गुण की बद्धता एवं अपने उपकारी खरतरगच्चाचायों के प्रति अनन्य अवा का अच्छा परिचय मिलता है। ___ उपर्युक्त बात की पुष्टि स्वल्प इस जाति वालों ने जिनविम्व और जिनालयों की सभी प्रतिष्टाएं खरतर गच्छाचाया द्वारा ही कराई है। श्रीजिनशालरिजी के पट्टाभिषेक महोत्सव में भी इसी जाति के उपर विजयसिह ने बहुवसा द्रव्य व्यय र किया था, जैसा कि श्रीजिनकुशलसरि पट्टाभिषेक रास में लिखा है: १ वा पूर्णवन्द्रनार द्वारा प्रकगित बरतर-गन्छ-पट्टावली संग्रह पृ०३०॥

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