Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 60
________________ व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम् ४१ अर्थ-आयर्याओं को भी चाहिये कि वे गुरु आज्ञा में वर्तमान उस पालक की गुरु के जैसे ही हमेशा उसको कही हुई आना को करते हुए सादर सन्मान करें। जइ को विदेइ अज्जाण वत्थाइ सयणोतयं । घेतव्यं तं तदाणाए ताहि समणीहिं नन्नहा ॥ २५ ॥ यदि कोऽपि ददात्यार्याभ्यो-वस्त्रादि स्वजनस्तत। गृहीतव्यं तत् तदाज्ञया ताभिः श्रमणीभिर्नान्यथा ।। २५ ॥ अर्थ-यदि कोई स्वजन-सम्बन्धी आर्याओं को वन आदि देता है तो उप पालक की आशा में उन श्रमणीयों को ग्रहण करना चाहिये। नही तो नहीं। सयणाईहिं पि जं दिन्नं तंतस्तप्पिति भावओ,। जइ सो तासि तं देइ, तया गिण्हति ताओवि ॥२६॥ स्वजनादिभिरपि यहत्त-तत्तम्मायन्ति भावतः। यदि स ताभ्यो ददाति तदा गणहन्ति ता अपि ।। २६॥ अर्ध-स्वजनादिकों ने जो कुछ दिया भाव से उग-पालक को अर्पण करना चाहिये। यदि यह गालक उस वस्त्रादि को उन्द है तो उस समय उनको ग्रहण करना चाहिये। जइ तस्स न निवेयन्ति तं गिण्हंति जहामई । आणा भट्ठा तया अज्जा पाति य न मंडलिं ॥२७॥

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