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व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम्
३९ यः सिंहस्थानीयः सूरिः स भवेत प्रवचनप्रभुरिति । प्रवचनप्रभावनाहेतोः, तस्य पढसारकः कुर्यात् ।। १६ ॥ अर्थ-जो सिह के जैसे होते हैं वे आचार्य प्रवचन के स्वामी होते है। ऐमा जान कर प्रवचन को प्रभावना के हेतु उनको पदपूजा पधराचणी विस्तार से करे।
वसहठ्ठाणिया जे उ सामन्नेण तु कीरइ ते सिं । जंबु हाणियाण तु जुलो संखेचओ समासेण ॥२०॥ वृपभरथानीया ये तु सामान्येन तु क्रियते तेपाम् । जंबुकरथानीयानां तु युक्तः सभेपतः समासेन ।। २० ।।
अर्थ-जो आचार्य चैल के जैसे प्रवचन को चलाते हैं उनकी पदपूजा सामान्य से की जाती है, और जो नाममात्र के आचार्य-जबुक स्थानीय सीगाल के जैसे है, उनकी पटपूजा संक्षेप से करनी युक्त होती है।
अट्ठाहियाइपव्वेसु निज्झइ छ गिहेसु जुत्तामिण । सामन्नसाहुवत्थाइ दाण दियहे न जुत्तं तं ॥२१॥
अष्टातिकादिपर्वसु दीयते छत्रं गृहेषु युक्तमिदम् । सामान्य साध्यवस्थायामिदानी दीयते न युक्तं तत् ॥२१॥
अर्थ-भट्टाहि आदि पों में [ गृहस्थी के ] घरों में [ आचार्य के लिये एन लगाया जाता है। यह युक्त है। आगपाल मामान्य गार भगरमा में दिया जाता है वह युक्त नहीं है।