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घ्यवस्था-शिक्षा-पुतकम्
जओ भणिय मिणं सत्ते संथरणंमि असुद्धं दुण्हवि गिण्हंत दितयाणऽहियं । आउरदिढतेणं तं चेव हियमसंथरणे ॥ ५२ ॥
यतो भणितमिदं सूत्रे - संस्तरणे शुद्धं द्वयोरपि गृहतो ददतो ऽहितम् ।
आतुर हटान्तेन तच्चंव हितमसंस्तरणे ।। ५२ ।। अर्थ- इसलिये सूत्र में यह कहा है कि
मुखपूर्वक निर्वाह होते हुए अशुद्ध लेने वाले और देने वाले दोनों का अहित होता है। तो गेगी के उदाहरण से निर्वाह न होने पर अशुद्ध लेने और देने वाले दोनों का हित होता है।
"नय किं पि अणुन्नायं, पडिसिद्धं वाविजिणवरिंदेहिं ।" एसा तेमि आणा 'कज्जे सच्चण होयचं' ॥ ५३ ॥
न च किमप्यनुज्ञातं प्रतिपिद्ध वापि जिनवरेन्दः।। एपा तपामाज्ञा, कार्य सत्येन भवितव्यम् ॥ ५३॥ अर्थ-श्रीतीर्थकर भगवान ने एकान्त प न मिी कार्य या अनु. गोदन हो लिया है, न किमी का निषेध ही किया है। यह टनको आगा है कि "कार्य करते हुए सत्यभार से रहित होना चाहिये।"
। स्थानाज सत्र (पृ. ११.) की पहली पृशि में ।
"टीम गेण्डन देतयाणऽदिय ।"