Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 78
________________ व्यवन्या-शिक्षा-गुलकम् यदि सोऽपि निर्गुणो ज्ञात्वा स्वमत्यापि निन्दति। सा वृत्तिमत्क्षता तेन सती धर्मदुरक्षिका ॥ ६७ ॥ अर्थ-यदि वह निर्गुण जान करके भी स्वच्छन्दतया निदा करता है तो उसने उस धर्मक्ष को रक्षिका वार को ही तोड़ दी है। आणा वि तेण सा भग्गा गुरुणा सोक्सकारिणी। मिच्छदिद्वितओ सो वि लटुंतल्लक्षणावलि ॥६॥ आज्ञापि तेन सा भग्ना गुरोः सौरन्यकारिणी। गिथ्यादृष्टितया सोऽपि लब्धं तरक्षणावलीम् ॥६॥ अर्थ-उगने गिगाइरिगाव में, और मिध्याटि के पित-दुर्गति को। परपरा पाने को परमा फरनेवाली गुरुमहाराज की भाग भी गठित कर दी। जणइ निव्वई जन्तु-जायं फलमणुत्तरं। गुरुधम्मदुमाहितो तेण तं पि हु हारियं ।। ६६ ॥ जनयति नितिं यत्तु जान फलमनुत्तरम् । गुगधर्मगुमान तेन नदपि पटु हारितम् ॥६॥ अ---जो निति गो पंडा करना मा परे धर्मर से पटाया सरपल गोभी उगने नियम पार धार दिया। चायणं पिछ सो दंड जो दाडं जाणई तयं । परदुन्चयणं सोच्चा जोरोसेण न जिप्पइ ॥ ७० ॥

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