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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसुरि समं साधर्मिकेणापि राजकुल देवकुलं कुर्यात् । हेलनं धरणं युद्धं सोऽपि खलु नाशयति दर्शनम् ।। ६४॥
अर्थ-जो मार्मिक के साथ भी राज दरवार करता है हीलगातिरस्कार करता है, धरणा देता है, युद्ध करता है वह अपने सम्यक्त्व का नाश करता है। साहू वा सावगोवाचि माहूणी सावियाइ वा। वाडिप्पाया वि जे संति गुरुधम्म ढुमस्स ते ॥६५॥
साधुश्रावको वापि साध्वी श्राविकादिर्वा । वृत्तिप्राया अपि ये सन्ति गुरुधर्मद्रुमस्य ते ॥३॥ अर्थ-जो साधु श्रावक, साध्वी और श्राविकायें भी बड़े वर्मस्प पेड़ की रक्षा करने वाली बाड के जैसे है । पालणिजा पयत्त ण, वत्थपाणासणाइणा । सायरं सो न तेसिंतु करिजा समुवेहणं ॥ ६६ ॥
पालनीयाः प्रयत्नेन वस्त्रपानासनाढिना।
सादरं स न तेषां तु कुर्यात् समुपंक्षणम् ॥६६॥ अर्थ-वस्त्र खान पान आदि से आदरपूर्वक पालने योग्य हैं। उनको उपेक्षा कभी भी नहीं करनी चाहिये।
जइ सो वि निग्गुणो नाउंसमईए विनिंदई । सा बाडी उक्खया तेण संति धम्मदुरक्खगा ॥६॥