Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 61
________________ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि यदि तस्मै न निवेदयन्ति तद्गृणहन्ति यथामति । आजाभ्रष्टा सा आर्या प्राप्नोति च न मण्डलीम् ।। २७ ।। मर्थ-यदि उस पालक को निवेदन नहीं करती हैं और यथामतिस्वेच्छा से ग्रहण करती है तो वे आर्याय आजा से भ्रष्ट हैं और मडलि समुदाय में रहने योग्य नहीं है। जइ सो न देइ अज्जाणं लद्धवत्थाइ लोहओ। सुगुरुत्ताओ चुक्को मण्डलिं पावए कहिं ।। २८॥ यदि स न ददात्यार्याभ्योः लब्धवस्त्रादि लोभतः। सुगुरुतातश्च्युतः मंडलीं प्राप्नुयात् कथम् ।। २८ ।। अर्थ-यदि वह पालक लोभ से पाये हुए वस्त्रादि उन आर्याओ को नहीं देता है तो वह अपने गुरुत्त्व से भ्रष्ट होता है। वह कैसे मडलि का पालन करेगा? सर्वथा नहीं। देवस्स नाण दव्वं तु साहारण धणं तहा । सावगेहिं तिहा काउं नेयव्वं बुड्ढि मायरा ॥ २६ ॥ देवस्य ज्ञान द्रव्यं तु साधारणं धनं तथा। श्रावकैस्त्रिधा कृत्वा नेयं वृद्धिमादरात् ।। २६ ।। अर्थ-श्रावकों को देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्य और साधारणद्रव्य ऐसे धार्मिक धन के तीन भेद करने चाहिये, और तत्परता से उसकी वृद्धि करनी चाहिये।

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