Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 66
________________ व्याया-शिक्षा-कुन्कम् ४५ .no अर्थ-क्षेत्र कालादि को मानने वाले गोतार्थ गुरु लोग जो करते है टमको बिना समझे जी अगीतार्थ आचरते है वे सम्यक्त्ती नहीं है। सुद्धसद्धम्मकारीणं जे सुगुरूणमंतिए । सुद्धं सहसणं लिंति सग्गासिद्धिसुहावहं ।। ३६ ॥ शुद्धसद्धर्मकारिणां ये सुगुरूणामन्तिके । शुद्धं सद्दर्शनं लान्ति, स्वर्गमिद्धिसुखावहम् ।। ३६ ।। अर्थ--शुत गद्धर्म को करनेवाले गुरुजी के पास जो शुन मम्यगदर्शनमम्यक्त्व लेते हैं। उनके लिये वह गुण स्वर्ग-मिति के गुग को करनेवाला होता है। साविया ओ वि एवं जा गिन्हति य सुदंसणं । तासिं सरीरदब्याई होजा सुगुरुसंतियं ।। ३७ ।। श्राविका अप्येवं या गृहन्ति च मुदर्शनम्। तासां शरीरदव्याणि भवेयुः सुगुमसत्कानि ।। ३७ ॥ अर्थ-जी श्राविकाय भी इस प्रकार गुदर्शन को प्रहण करती हैं। ये तन, धन मे गुम्मेरा में गर्दव तत्पर रहती है। सावया साविया ओ वा गुरुत्तातं धणाइयं । जे न वांछंति तं दाउ दिन्नपि गुरुणा पुरा ॥ ३८ ॥

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