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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि संगहंति य जे दव्यं गुरुणं न कहंति य । ते वि भट्टाहमा धिट्टा भमंति भवसागरे ।। ३३ ।।
संगृणहन्ति च ये दन्यं, गुल्न न कथयन्ति च । तेऽपि भ्रष्टा अधमा धृष्टा भ्रमन्ति भवसागरे ॥३||
अर्थ-जो माधु सान्त्री द्रव्य का मग्रह करते हैं और गुरु को नहीं कहते हैं। वे भी भ्रष्ट अवम और धोठे भवसागर में भटकते हैइवते हैं।
अवेलाए न साहणं वसहीए साविगागमा । साहुणीए विसेसेण ना सहायाइ संगओ ॥ ३४ ॥
अवेलायां न साधना वसती श्राविकागमः। साच्या विशेर्पण नासहायाढी सङ्गत. ॥३४॥ अर्थ-विना समय माधुओं के स्थान में श्राविकाओं का आना उचित नहीं है। विशेष रूप मे मावीयों का आना भी सगत नहीं है। हाँ असहाय अवस्था में मगत हो मरना है।
गीयत्था गुरुणो जं जं खित्त कालाइ जाणगा। करिति तमगीयत्थो जो कुज्जा दंमणी न सो ॥ ३५ ॥
गीतार्था गुरवो ययन् क्षेत्र कालादि बायका.। कुर्वन्ति तद्गीतार्थो यत् कुर्याद् दर्शनी न सः ।। ३५ ।।