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मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमरि
तदुत्तवयणासत्तो विहाराइमु बट्टइ । अकहियो गुरुणा नेय लेइ किंपि न मिल्लह ॥ २२ ॥ तदुक्तवचनासक्ते विहारादिपु वर्तते ।
अकथितो गुरुणा नैव लाति किमपि न सजति ॥२२॥ अर्य-पूर्वोक्त आचार्यदेव के वचनों में आसक्त होता हुआ माधु विहारादिक में प्रवृत्ति करता है। गुरु के बिना कहे न कुछ लेना है न युल छोडता है।
ठाविआ गुरुणा जत्थ जो अज्जाइण पालगो। तेण ताओ वि अज्जाओ, पलणिज्जा गुरुतए ॥२३॥
स्थापितो गुरुणा यत्र य आयादीनां पालकः । तेन ता अय्यार्या. पालनीया गुस्तया ॥२३॥ अर्थ-जहा पर जिसको गुल्महाराज ने आदिकों का पाला रक्षा करने वाला नियुक्त किया है उनको चाहिये कि गुरु-आचार्य के जैसे ही उन आर्याओं की रक्षा करे।
गुरु आणाए बहतो सो अजाहिं पि सायरं । गुरुज्य मन्नणिज्जोचि तदुत्त करणा सया ॥ २४॥ गुर्वाज्ञायां वर्तन् स आर्याभिरपि सादरम् । गुररिव माननीय इति तदुक्तकरणान सदा ॥ २४ ॥