Book Title: Manidhari Jinchandrasuri
Author(s): 
Publisher: Shankarraj Shubhaidan Nahta

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Page 62
________________ व्यवस्था-शिक्षा-कुलकम् ४३ साहू वा साहुणीओ वा कारिता नाणपूअणं । गिण्हंता सयं जंति आणा भट्टाय दुग्गई ॥ ३० ॥ साधवो वा साध्न्यो वा कारयित्वा ज्ञानपूजनम् ।। गृणहुन्त' स्वयं यान्त्या-ज्ञाभ्रष्ठाश्च दुर्गतिम् ॥३० ।। अर्थ- साधु और साध्विये भानपूजा कराके स्वय ग्रहण करते हैं तो वे आशाभ्रष्ट हो कर दुर्गति में जाते हैं। सजओ सजई सट्टो, सड्ढी वा कलहं करे । चुकति दसणाओ ते होउं तइपभावगा ॥ ३१ ॥ संयतः संयती श्राद्धः श्राद्धी वा कलह क्रियात् । भ्रश्यन्ति दर्शनात्ते-भूत्वा तदप्रभावकाः ॥ ३१ ।। अर्थ-साधु, साधी, श्रावक और श्राविका यदि एक दूसरे से क्लह करते हैं तो वे सम्यक्त्व मे भ्रष्ट होते हैं और वे शासन को होलणा फरनेवाले होते हैं। गिहीणं जे उ गेहाओ, आणित्तासणपाणगं । निकारणं विच्छडता, जंति ते सुगई कहं ॥३२॥ गृहिणां ये तु गृहा-दानाय्यासनपानकम् । निष्कारणं क्षिपन्तो यान्ति ते सुगतिं कथम् ।। ३२॥ अर्थ- जो साधु साधी गृहस्थी के पर में अमण पान आदि आहार को ला करके कारण हो फेक देते है वे कसे गुगति में जा सकते हैं?

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